भक्तामर स्तोत्रकाव्य – 47
सर्व भय निवारक
मत्त-द्विपेन्द्र-मृगराज-दवानला – हि,
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्ध -नोत्थम् ।
तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव ,
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमा नधीते ॥47॥
अन्वयार्थ: य:- जो | मतिमान् – बुद्धिमान् पुरुष | तावकम् – आपके | इमं – इस | स्तवं – स्तोत्र को | अधीते – पढ़ता है | तस्य – उसका | मत्त द्विपेन्द्र – मत्तगजराज | मृगराज – सिंह | दावानल – दावाग्नि | अहि – सर्प | संग्राम – युद्ध | वारिधि – समुद्र | महोदर – जलोदर और | बन्धनोत्थम् – बेड़ी-बन्धन से उत्पन्न हुआ | भयम् – भय | भिया इव – डर कर ही मानो | आशु – शीघ्र | नाशम् – नाश को |
उपयाति -प्राप्त हो जाता है ।
अर्थ- जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढता है उसका मत्त हाथी,सिंह,दावानल,युद्ध,समुद्र जलोदर रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न भय मानो डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है ।
जाप – ॐ नमो ह्राँ ह्रीं ह्रूँ ह्रौं ह्रः य क्ष श्रीं ह्रीं फट् स्वाहा।
ॐ नमो ह्राँ ह्रीं ह्रूँ ह्रः य क्ष श्रीं ह्रीं फट् स्वाहा।
ऋद्धि मंत्र – ऊँ ह्रीं णमो सिद्धायदणाणं वड्ढमाणाणं झ्रौं झ्रौं नम: स्वाहा ।
अर्घ्य – ऊँ ह्रीं बहुविधि विघ्न विनाशाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दीप मंत्र – ऊँ ह्रीं बहुविधि विघ्न विनाशाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभ जिनेन्द्राय दीपं समर्पयामि स्वाहा ।
जाप विधि – सफेद कपडॆ ,सफेद माला,सफेद आसन पर बैठकर पूर्व दिक्षा की और मुख कर जाप करना चाहिए ।
कहानी
भोग की आकांक्षा
एक बार एक वृद्ध था, जिसकी पुत्रवधूू चरित्रहीन थी। वृद्ध एक जैन परिवार में काम करता था, जहां उसकी मालकिन रोजाना अपने बच्चों को भक्तामर के 47वें काव्य का अध्ययन करवाती थी। इस तरह से वृद्ध को भी यह श्लोक याद हो गया। एक दिन जब उसकी पुत्रवधू अपने प्रेमी से मिलने जा रही थी तो उसके पांव का बिछवा गिर गया। वृद्ध ने उठा कर लिया कि सुबह दिखाऊंगा लेकिन पुत्रवधू सुबह समझ गई कि उसके ससुर के पास उसका बिछवा है। उसने अपने ससुर पर लांछन लगा दिया और उसे जेल भिजवा दिया। जेल में वह वृद्ध नियमित रूप से भक्तामर का पाठ किया करता था। उसकी भक्ति देखकर राजा ने उसे पहरेदार बना दिया। एक दिन वृद्ध ने रानी को भी अपने प्रेमी से मिलने जाते देखा तो उस दिन से वह चुप रहने लगा। राजा ने कारण पूछा तो उसने कहा कि आप खुद आंखों से देखना। रानी को अपने प्रेमी से मिलने जाते देख कर राजा को बहुत दुख हुआ लेकिन उसने रानी और उसने प्रेमी को बहुत सारा धन देकर महल से रवाना कर दिया और पहरेदार वृद्ध को भी आजाद कर दिया। रास्ते में रानी को एक चोर मिला, जिसने उसका सारा धन लूट लिया तो रानी का प्रेमी भी उसे छोड़कर चला गया।
शिक्षा – इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि भोग की आकांक्षा मनुष्य को कहीं का नहीं छोड़ती। मनुष्य की सुरक्षा केवल धर्म की शरण में है और भक्तामर के 46वें काव्य का पाठ श्रद्धापूर्वक करने से धर्म की शरण मिल जाती है।
चित्र विवरण- नान भयों से भयभीत भक्त,जब भक्ति पूर्वक स्तोत्र पाठ करने बैठा तो सारे भय दूर भाग गये और वह प्रसन्नता का अनुभव करने लगा जैसे जीवन में सुख का नया सूर्योदय हो गया है ।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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