माँ काललादेवी का परिचय तो उनके संकल्प से मिल जाता है। जिसका संकल्प ही पवित्र हो उसकी श्रद्धा और आचरण कितना पवित्र होगा यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। मां काललादेवी के उसी संकल्प का परिणाम है श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुबली की 58 फुट ऊंची प्रतिमा, जिसे आज लाखों लोग श्रद्धा से नमस्कार करते हैं। कुछ लोग इसे आश्चर्य समझ कर देखने आते हैं। यही नहीं यह प्रतिमा एक बेटे की माँ के प्रति अनन्य श्रद्धा की प्रतीक भी है।
काललादेवी गंगराज वंश के महामंत्री चामुण्डराय की माँ थी। माँ जब महापुराण का स्वाध्याय कर रहीं थीं तो उसमें पोदनपुर में भगवान बाहुबली कि प्रतिमा का वर्णन आया। उन्होंने उसी समय संकल्प किया कि जब तक बाहुबली के दर्शन नही होंगे तब तक दूध का त्याग करेंगी। यह संस्कारों का ही फल है कि एक अच्छे कार्य के लिए माँ ने दूध छोड़ा तो बेटे ने मां को भगवान के दर्शन करवाने का संकल्प लिया। चामुंडराय आचार्य अजीत सेन का आशीर्वाद लेकर पोदनपुर की यात्रा को निकल पड़े। माँ काललादेवी का नियम था कि वह प्रतिदिन देव, गुरु पूजा, स्वाध्याय, संयम, दान और तप आदि श्रावक के कर्तव्यों को पूरा कर के ही जलपान ग्रहण करती थीं। काललादेवी अपने परिवार के साथ प्रतिदिन भगवान नेमिनाथ का अभिषेक पूजन करती थीं। जब वह पोदनपुर कि यात्रा के लिए निकलीं तब भी वह अपने साथ भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा लेकर चलीं। काललादेवी असहाय लोगों को दान, नौकरी, स्नेह आदि से संतुष्ट कर उनके दु:ख दूर करती थीं। वह महिलाओं को उनके कर्तव्य समझाने और जीवन में धर्म का महत्व बताने के लिए महिलाओं से विचार-विमर्श और चर्चा करतीं थीं। उन्हें अपने कर्तव्य का बोध करवाती थीं। संतों को आहार दान देना, उनकी साधना में सहयोगी बनना उनका नित्य कर्त्तव्य था। यही संस्कार उन्होंने अपने बेटे-बहु को भी दिए थे। अपने जीवन में उन्होंने जो त्याग, ध्यान और भक्ति की उसका फल भी मिला। भगवान बाहुबली की प्रतिष्ठा और महामस्तकाभिषेक के बाद काललादेवी और चामुण्डराय की पत्नी अजितादेवी ने आर्यिका दीक्षा धारण कर समाधिमरण किया।
इस इतिहास को बताने का प्रयोजन यही है कि युवा वर्ग चामुण्डराय से यह प्रेरणा ले कि मां के संकल्प को पूरा करने के लिए किस तरह आपने आप को समर्पित किया जाता है।
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