पूज्य जगद्गुरु कर्मयोगी स्वस्तिश्री चारूकीर्ति भट्टारक स्वामीजी, श्रवणबेलगोल के उद्गगार
मेरे सहयोगी का पूछना है कि पत्रिका का नाम आखिर ‘श्रीफल’ क्यों? पत्रिका का नामकरण चूंकि पूज्य स्वस्ति श्री चारूकीर्ति स्वामीजी के श्रीमुख से हुआ था, अत: मैंने कहा कि ‘श्रीफल’ क्यों? इसका उत्तर तो स्वामीजी ही बता सकते हैं। अंतत: वह दिन आ ही गया, जब मेरे सहयोगी भाई महावीर ने स्वामीजी से ‘श्रीफल’ के लिए हुई पहली मुलाकात में स्वामीजी से यह पूछ ही लिया। आखिर आपने पत्रिका का नाम श्रीफल क्यों रखा? ऐसा पहली बार सुनने को मिला है।
प्रश्न सुनते ही स्वामीजी ने श्रीफल की जो सार्थकता प्रस्तुत की, उसे सुनकर मानों ऐसा लगा कि स्वामीजी ने श्रीफल नाम देकर पत्रिका को भूत-भविष्य-वर्तमान के साथ जोडक़र जो व्याख्या प्रस्तुत की है, वह न केवल श्रीफल को ऊंचाइयों तक ले जाने में सार्थकता प्रदान करेगी, वरन जीवन से मृत्यु तक की वह सारी सामग्री प्रस्तुत करेगी, जिससे बच्चे, युवा, वृद्ध, सभी लाभान्वित होंगे। यह पत्रिका भगवान बाहुबली के सिद्धांत अहिंसा से सुख, त्याग से शांति, मैत्री से प्रगति, ध्यान से सिद्धि की ओर अग्रसर होकर श्रमण संस्कृति के उन्नयन में सहायक होगी। पाठकों की जानकारी के लिए परम पूज्य स्वस्तिश्री चारूकीर्ति भट्टारक महास्वामीजी से श्री राजेंद्र जैन ‘महावीर’ के साथ हुई चर्चा प्रस्तुत की जा रही है, जिससे पाठकों को श्रीफल व ‘श्रीफल’ नाम की सार्थकता का पता चल सकेगा।
वर्तमान काल में सभी कल्पवृक्ष नष्ट हो गए हैं। यदि कोई कल्पवृक्ष फल शेष है तो वह श्रीफल ही है। यह तीर्थंकर ऋषभदेव के पहले का फल है, तीसरे काल से श्रीफल है, देशकाल परिवर्तन से इसका आकार अवश्य ही परिवर्तित हो गया है लेकिन श्रीफल की सार्थकता आज भी पूर्वकाल जैसी ही है। पहले श्रीफल में एक घड़ा पानी आता था, जो कम होता जा रहा है लेकिन श्रीफल आज भी उसी स्थान पर प्रतिष्ठापित है, जैसा तीसरे काल में था।
श्रीफल भगवान की पूजा, कलश के ऊपर, साधु के पड़गाहन में, अघ्र्य-पूर्णाघ्र्य में, हर जगह काम आता है। श्रीफल के बिना न कलश होता है, न पूजन। इस फल को तीर्थंकरों ने भी देखा है। यह फल श्वेत है, शुभ्र है, स्वच्छ है, कोमल है, स्वादिष्ट है और सर्वोपयोगी है।
श्रीफल के वृक्ष में अहिंसा का भाव है। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि श्रीफल का फल आज तक पेड़ के नीचे से निकलने, खड़े होने, आराम करने वाले के सिर पर नहीं गिरा। श्रीफल का कच्चा फल इतना वजनदार होता है कि यदि वह किसी व्यक्ति के सिर पर गिर जाए तो उसकी मृत्यु तक हो सकती है। स्वामीजी का कहना है कि इतिहास गवाह है कि श्रीफल उत्पन्न करने वाले इस इलाके में कभी भी श्रीफल किसी के ऊपर नहीं गिरा है। जब गिरा भी है, वह खाली स्थान पर ही गिरा है। यही श्रीफल के वृक्ष की महिमा है, जो अहिंसा का पालन करता है। अत: यह फल व वृक्ष अहिंसा परमो धर्म: के सिद्धांत का पालन करता हुआ एकमात्र कल्पवृक्ष है, जो हमें इस पंचम काल में भी उपलब्ध है।
श्रीफल के बाहरी आवरण में बने तीन चिह्न सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र के प्रतीक हैं। अत: यह रत्नत्रय को प्रदर्शित करने वाला श्रीफल है। इस श्रीफल में तीन चिह्नों में से एक चिह्न श्रीफल को पेड़ से लटकाने में और दो श्रीफल में जल भेजने का कार्य करते हैं। अत: एक चिह्न, जो पेड़ से लटकाए रखने में सहायक है, वह सिद्ध करता है कि यह फल मोक्षमार्ग के रास्ते में पूर्णरूपेण जोड़े रखता है, अन्य फल में यह देखने को नहीं मिलता।
श्रीफल में लक्ष्मी और सरस्वती का वास है। यह फल दिगंबर जैन साधु व सज्जन व्यक्ति के स्वभाव को भी प्रदर्शित करता है। दिगंबर जैन साधु की चर्या अत्यंत कठोर होती है। अत: श्रीफल का बाह्य आवरण उस कठोर चर्या को प्रदर्शित करता है। साथ ही यह भी प्रदर्शित करता है कि जैन मुनि अंतरंग में भी श्रीफल के समान मृदु व निर्मल जल की भांति होते हैं। इसलिए कहा है कि ‘मुनि मन उज्जवल’। इस तरह श्रीफल की धार्मिकता उपरोक्त निहित है।
श्रीफल व्यावहारिक जीवन में किसी भी समाजसेवी, राजनेता, धार्मिक साधुसंत, विद्वान आदि श्रेष्ठीजनों के सम्मान के लिए सर्वोत्कृष्ट फल है, जिसे लेने से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। आप किसी का कितना ही सम्मान करें, अपार वस्तुएं, उपहार दें, यदि श्रीफल न दें तो सम्मान अधूरा माना जाता है। सम्मानीय व्यक्ति सभी उपहार वापस कर सकता है, लेकिन उसे श्रीफल तो सम्मान स्वरूप ग्रहण करना ही होता है क्योंकि वह श्रीफल का अपमान नहीं कर सकता है। यह श्रीफल की महिमा है। यह सम्मानीय सर्व ग्रहणीय फल है।
श्रीफल न केवल धार्मिक, बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी उतना ही उपयोगी है, जितना कि अर्थशास्त्र। श्रीफल मनुष्य जीवन के संपूर्ण अर्थशास्त्र को अपने में समाहित करते हुए सिद्ध करता है कि श्रीफल की एक भी वस्तु व्यर्थ नहीं जाती है।
श्रीफल के संदर्भ में जानने योग्य बात है कि सोने को गरम करने के लिए सबसे कडक़ वस्तु नारियल की नरेटी है। जिस पर सुनार को विश्वास है कि इससे ही आसानी से नियंत्रण पाया जा सकता है। सुनार के लिए श्रीफल की नरेटी का कोयला अनिवार्य है, सोने के आभूषणों को आकार देने के लिए श्रीफल का कोयला ही लगता है।
श्रीफल ही एकमात्र ऐसा वृक्ष है, जिसकी हर वस्तु काम में आती है। श्रीफल की जटाओं से मजबूत रस्सी, ग्रामीणों के वस्त्र, मुकुट बनते हैं। यह जलाने में भी काम में आती है। श्रीफल का पानी, तेल, इसकी मलाई से बनने वाला दूध काम आता है। जटाओं से साधुओं के बिस्तर, सीट का फोम, ब्रश आदि तैयार होते हैं। नरेटी से बर्तन, मग, कटोरी आदि वस्तुएं तैयार होती हैं। तमिलनाडु, केरल में गरीब लोग आज भी इसके पत्तों से छत ढककर अपने रहने का स्थान बनाते हैं। यह स्थान गर्मी में एयरकंडीशन का कार्य करता है। नरेटी के पाउडर को महीन पीसकर प्रारंभ में मच्छर अगरबत्ती बनाई जाती थी क्योंकि इसके धुएं में ऑक्सीजन न होने से मच्छर भाग जाते हैं। इसी तरह जीवनभर उपयोग में आने वाला श्रीफल मृत्यु संस्कार में भी पूर्णरूपेण उपयोगी है। अत: श्रीफल की ये सार्थकताएं स्पष्ट होने के बाद स्वामीजी ने अपने श्रीमुख से कहा कि पत्रिका का नाम ‘श्रीफल’ इसलिए रखा है कि जिस तरह से जन्म से लेकर मरण तक, व्यावहारिकता से लेकर धार्मिकता, तीसरे काल से लेकर वर्तमान काल तक, श्रीफल उपयोगी है, रत्नत्रय का अर्थात् मोक्षमार्ग का उपदेश देने में समर्थ रहा है, उसी तरह यह भी है। उसका आकार भले ही छोटा हो गया लेकिन गुण अभी तक बरकरार हैं। इसी तरह से श्रीफल पत्रिका गुणों की धारी बनकर धार्मिकता-व्यावहारिकता संदर्भ को अपने में समाहित करेगी, ऐसी भावना व कामना के साथ पत्रिका का नाम ‘श्रीफल’ किया गया है।
श्रीफल के उपरोक्त गुणधर्म सुनकर हम सभी उपस्थित जन नतमस्तक हो गए और स्वामीजी की सोच व विचारों को श्रीफल में समाहित करने की प्रेरणा लेकर स्वामीजी की भावनानुरूप समाज में भगवान बाहुबली के संदेश अहिंसा से सुख, त्याग से शांति, मैत्री से प्रगति, ध्यान से सिद्धी की भावना को जन-जन में प्रसारित करने के उद्देश्य से श्रीफल के प्रथम पुष्प को आपके हाथों में सौंपते हुए हर्ष मिश्रित गौरव का अनुभव कर रहे हैं।
ब्र. चक्रेश जैन
(वर्तमान में मुनि पूज्य सागर महाराज )
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