एक बार आचार्य शांतिसागर महाराज से किसी ने पूछा कि क्या केशों को उखाड़ने में आपको कष्ट नहीं होता, हमने तो केशलोंच के समय आपके चेहरे पर हमेशा शांति का भाव देखा है। इस पर आचार्य श्री ने कहा कि उन्हें केशलोंच करने में जरा भी कष्ट नहीं होता क्योंकि जब शरीर में मोह नहीं रहता, तब शरीर के पीड़ित होने पर भावों में संक्लेश नहीं होता। निरंतर वैराग्य भावना के कारण शरीर के प्रति मोह भाव दूर जाता है। आचार्य श्री का कहना था कि आत्मा से शरीर को भिन्न देखने वालों के लिए केशलोंच आत्मविकास का कारण होता है। केशलोंच से अन्य संप्रदाय के लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ता है और जिनधर्म की प्रभावना होती है। अहिंसा और अपरिग्रह भाव की रक्षा के लिए यह कार्य किया जाता है। जब मन उच्चे आदर्शों की ओर लगा रहता है, तब जघन्य संकटों का भान तक नहीं होता है। केशलोंच देखकर यह भी समझ में आता है कि मुनिराज जिस प्रकार शरीर से दिगंबर होते हैं, उसी प्रकार उनका मन भी सभी वासनाओं के अंबर से मुक्त होता है। जैनेश्वरी तपस्या के द्वारा धर्म प्रभावना के लाभ को भूल कर कोई-कोई व्यक्ति एकांत में केशलोंच का समर्थन करते हैं लेकिन यह धारणा अयोग्य है क्योंकि सार्वजनिक रूप से केशलोंच करने से अन्य धर्मियों के बीच जैन धर्म की महिमा अंकित होती है औऱ वे सच्चे साधुत्व का मूल्यांकन करने लगते हैं। उनमें पूज्य भावना जागती है।
27
Jun
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