वत्सदेश की कौशाम्बी नगरी में राजा सिंहस्थ रहता था। उसकी रानी का नाम विजया था। वहाँ एक चोर कपट से तापस होकर रहता था। वह दूसरे की भूमि का स्पर्श न करता हुआ लटकते हुए साँफे पर बैठकर दिन में पञ्चाग्नि तप करता था और रात्रि में कौशाम्बी नगरी को लूटता था। एक समय “नगर लुट गया है” इस तरह महाजन से सुनकर राजा ने कोट्टपाल से कहा-रे कोट्टपाल ! सात रात्रि के भीतर चोर लाओ या अपना सिर लाओ। चोर को न पाता हुआ कोट्टपाल चिन्ता में निमग्न हो बैठा था कि किसी भूखे ब्राह्मण ने आकर उससे भोजन माँगा। कोट्टपाल ने कहा- हे ब्राह्मण! तुम अभिप्राय को नहीं जानते। मुझे तो प्राणों का सन्देह हो रहा है और तुम भोजन मांग रहे हो। यह वचन सुनकर ब्राह्मण ने पूछा कि तुम्हें प्राणों का सन्देह किस कारण हो रहा है ? कोट्टपाल ने कारण कहा। उसे सुनकर ब्राह्मण ने फिर पूछा यहाँ क्या कोई अत्यन्त निःस्पृह वृत्ति वाला पुरुष रहता है। कोट्टपाल ने कहा कि विशिष्ट तपस्वी रहता है, परन्तु उसका यह कार्य सम्भव नहीं है। ब्राह्मण ने कहा कि वही चोर होगा, क्योंकि वह अत्यन्त निःस्पृह है। इस विषय में मेरी कहानी सुनिये
• मेरी ब्राह्मणी अपने आपको महासती कहती है। मैं पर पुरुष के शरीर का स्पर्श नहीं करती”, यह कहकर तीव्र कपट से समस्त शरीर को कपड़े से आच्छादित कर अपने पुत्र को स्तन देती है। दूध पिलाती है। परन्तु रात्रि में गृह के वरेदी के साथ कुकर्म करती है। यह देख मुझे वैराग्य उत्पन्न हो गया और मैं मार्ग में हितकारी भोजन के लिये सुवर्णशलाका को बाँस की लाठी के बीच रखकर तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़ा। आगे चलने पर मुझे एक ब्रह्मचारी बालक मिल गया, वह हमारे साथ हो गया। मैं उसका विश्वास नहीं करता था, इसलिये उस लाठी की बड़े यत्न से रक्षा करता था। उस बालक ने समझ लिया कि यह लाठी सगर्भा है। इसके भीतर कुछ धन है। एक दिन वह बालक रात्रि में कुम्भकार के घर सोया। प्रातः वहाँ से चलकर जब दूर आ गया तब मस्तक में लगे हुए सड़े तृण को देखकर कपटवश उसने मेरे आगे कहा कि हाय हाथ मैं दूसरे के तृण को ले आया। ऐसा कहकर वह लौटा और उस तृण को उसी कुम्भकार के घर पर डालकर सायंकाल के समय तब हमसे मिला जब कि मैं भोजन कर चुका था। वह बालक जब भिक्षा के लिये जाने लगा तब मैंने सोचा कि यह तो बहुत पवित्र है। इस तरह उसका विश्वास कर कुत्ते आदि को भगाने के लिये मैंने वह लाठी उसके लिये दे दी। उसे लेकर वह चला गया।
तदनन्तर महाअटवी में जाते हुए मैंने एक वृद्धपक्षी का बड़ा कपट देखा। एक बड़े वृक्ष पर रात्रि के समय बहुत पक्षियों का समूह एकत्रित हुआ। उसमें अत्यन्त वृद्ध पक्षी ने रात्रि में अपनी भाषा में दूसरे पक्षियों से कहा कि हे पुत्रों! अब मैं अधिक चल नहीं सकता। कदाचित् भूख से पीड़ित होकर आप लोगों के पुत्रों का भक्षण करने लगूं, इसलिये प्रातः काल आप लोग हमारे मुख को बाँधकर जाइये। पक्षियों ने कहा कि हाय पिताजी! आप तो हमारे बाबा है, आपमें इसकी संभावना कैसे की जा सकती है ? वृद्धपक्षी ने कहा कि “बुभुक्षितः किं न करोति पापम्” भूखा प्राणी क्या पाप नहीं करता ? इस तरह प्रातःकाल सब पक्षी उस वृद्ध के कहने से उसके मुख को बाँधकर चले गये। वह बँधा हुआ वृद्ध पक्षी, सब पक्षियों के चले जाने पर अपने पैरों से मुख का बन्धन दूर कर उन पक्षियों के बच्चों को खा गया और जब उनके आने का समय हुआ तब फिर से पैरों के द्वारा मुख में बन्धन डालकर कपट से क्षीणोदर होकर पड़ गया।
तदनन्तर में एक नगर में पहुँचा। वहाँ मैंने चौधा कपट देखा। वह इस प्रकार कि उस नगर में एक चौर तपस्वी का रूप रखकर तथा दोनों हाथों से मस्तक के ऊपर एक बड़ी शिला को उठा दिन में खड़ा रहता था और रात्रि में हे जीव! हटो मैं पैर रख रहा हूँ, हे जीव हटो में पैर रख रहा हूं। इस प्रकार कहता हुआ भ्रमण करता था। समस्त भक्तजन उसे अपसर जीव इस नाम से कहते थे। वह चोर जब कोई गड्डा आदि एकान्त स्थान मिलता तो सब ओर देखकर सुवर्ण से विभूषि करते हुए एकाकी पुरुष को उस शिला से मार डालता और उसका धन ले लेता था। इन चार कपटों को देखकर मैंने यह श्लोक बनाया था
अबालस्पर्शका नारी ब्राह्मणोऽतृणहिंसकः ।
वने काष्ठमुख पक्षी पुरेऽपसरजीवकः ॥
पुत्र का स्पर्श न करने वाली स्त्री, तृण का घात न करने वाला ब्राह्मण, वन में काष्ठ मुख पक्षी और नगर में अपसर जीवक ये चार महा कपट मैंने देखे हैं।
ऐसा कहकर तथा कोट्टपाल को धीरज बँधाकर वह ब्राह्मण सीके में रहने वाले तपस्वी के पास
गया। तपस्वी के सेवकों ने उसे वहाँ से निकालना भी चाहा, परन्तु वह वहीं पड़ रहा और एक कोने में बैठ गया। तपस्वी के उन सेवकों से” यह सचमुच ही रात्र्यन्ध है या नहीं” इसकी
परीक्षा करने के लिये तृण की काड़ी तथा अंगुली आदिक उसके नेत्रों के पास चलायी, परन्तु वह
देखता हुआ भी पड़ा रहा। जब बड़ी रात्रि हो गई तब उसने गुहारूप अन्धकूप में रखे जाते हुए नगर के धन को देखा और उन लोगों के खान-पान आदि को देखा। प्रातःकाल उसने जो कुछ रात्रि में देखा था उसे कहकर राजा के द्वारा मारे जाने वाले कोट्टपाल की रक्षा की। सीके में बैठने वाला वह तपस्वी उस कोट्टपाल के द्वारा पकड़ा गया और बहुत भारी यातनाओं से दुःखी होता हुआ मरकर दुर्गति को प्राप्त हुआ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 76 वां दिन)
गुरुवार, 17 मार्च 2022, घाटोल
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