मनुष्य के दो हाथ, दो पैर, नितम्ब, पीठ, उर, मस्तक यह आठ अंग हैं। इन आठ अंगों में से एक भी अंग नहीं हो तो मनुष्य को अपंग या अधूरा कहते हैं। इसके बिना उसके शरीर की शोभा नही हैं। उसी प्रकार से सम्यग्दर्शन के आठ अंग निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, अमूदृष्टित्व उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना के बिना सम्यग्दर्शन की पूर्णता नहीं हो सकती है। यह आठ अंग मनुष्य की कषायों की मात्रा कम कर देते हैं। इस तरह मनुष्य धीरे-धीरे चरित्र की ओर बढ़ता हुआ एक दिन सभी कषायों को नष्ट कर देता है। इसका प्रारम्भ आठ अंगों के पालन से ही होता है ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आठ अंगों में से एक अंग भी कम होने के बारे में कहते हैं-
नाङ्गहीनमलं छेत्तुं, दर्शनं जन्मसन्ततिम् ।
न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो, निहन्ति विषवेदनां ॥21॥
अर्थात-निःशंकित आदि अंगों से हीन सम्यग्दर्शन संसार की परम्परा को नष्ट करने के लिए समर्थ नहीं है, क्योंकि एक अक्षर से भी हीन मंत्र विष की पीड़ा को नष्ट नहीं करता।
आचार्य ने मंत्र का उदाहरण देते हुए कहा कि मंत्र में एक अक्षर कम हो तो वह मंत्र शरीर में फैले विष को नहीं उतार सकता है। किसी मंत्र की कितनी भी साधना कर ली जाए पर वह मंत्र तब तक काम नहीं करता जब तक वह पूरा नहीं होता है। पहले मंत्र ठीक करें फिर वह काम करेगा, इसी प्रकार आठ अंग के पालन के साथ ही सम्यग्दर्शन के साथ की जाने वाली धार्मिक क्रिया कर्म निर्जरा का कारण है।
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने चारित्र प्राभृत (पाहुड) में कहा भी है कि
निःशंकितादि गुणों से विशुद्ध सम्यकत्व ही जिन सम्यकत्व कहलाता है तथा जिन सम्यकत्व ही उत्तम मोक्ष रूप स्थान की प्राप्ति के लिए निमित्त है। अर्थात ज्ञान सहित जिन सम्यकत्व का जो मुनि आचरण करतें है, वह पहला चरण सम्यकत्व नाम का चारित्र है।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 27 वां दिन)
गुरुवार, 27 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
Give a Reply