एक बार आचार्य शांतिसागर महाराज दमोह पहुंचे। आचार्य श्री को वहां कष्ट न हो, इसलिए एक सेठजी ने घर को साफ कराकर महाराज श्री से वहां रुकने का आग्रह किया लेकिन आचार्य श्री ने सोचा कि इसने घर केवल मेरे लिए साफ करवाया है। इसलिए एक गृहस्थ द्वारा किए गए सावद्य कर्म का दोष तो उन पर ही आएगा। इसलिए महाराज श्री ने उस घर को ठहरने के लिए अनुपयुक्त समझा और रात भर बाहर ही रहे। रात भर मच्छरों ने महाराज श्री के शरीर पर घोर उपसर्ग किया लेकिन उन्होंने मच्छरों के काटने को साम्य भाव से सहन किया। उन्होंने मच्छरों को अपने हाथ से भगाया तक नहीं और इस निर्विकार रूप से कष्ट सहन करते रहे, मानो यह शरीर उनका है ही नहीं। यही दिगंबर मुनियों की श्रेष्ठ चर्या है। इसमें शिथिलाचरण का जरा भी स्थान नहीं है। यही कारण है कि इस सिंह वृत्ति को धारण करने से संसार के बड़े-बड़े वीर डरते हैं। महावीर प्रभु के चरणों का असाधारण प्रसाद जिन महामानवों को प्राप्त हुआ है, वे ही ऐसे कठोर और भीषण कष्ट को कर्म निर्जरा मान कर सहर्ष स्वीकार करते हैं। ऐसे ही महामानव थे हमारे आचार्य श्री शांतिसागर महाराज।
28
Jun
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