पाप कर्म के उदय से संसारी आत्म यह सोचती है कि वर्तमान काल में मोक्ष तो होना नहीं, फिर व्रत आदि धारण करने से क्या लाभ है! और तो और संसारी आत्मा यह भी सोचती है कि जो होना है, वह तो होगा ही। फिर व्रत आदि क्यों धारण करें। यह सोच ही हमें धर्म से दूर कर रही है।
सच तो यह है कि मनुष्य जो भाव और विचार करेगा, वैसा ही उसके जीवन में घटित होगा। अभी जो भाव, विचार होगा, भविष्य में वैसा ही घटित होगा। व्रतादि से भाव और विचार पवित्र होते हैं। वही सांसारिक सुख और मोक्ष का कारण है। अव्रत से अशुभ भाव और अशुभ विचार आते हैं, जो नरक आदि का कारण है। कर्म तो अंतरंग कारण है और व्रतादि बरिहंग कारण है। आचार्य पूज्य पाद ने इष्टोपदेश ग्रन्थ में उदाहरण के साथ यही बात कही है।
वरं व्रतै: पदं दैवं, नाव्रतैर्वत नारकम्।
छायातपस्थयो र्भेद: प्रतिपालयतोर्महान्॥
अर्थात- व्रतों के द्वारा देव-पद प्राप्त करना अच्छा है, किन्तु अव्रतों के द्वारा नरक में उत्पन्न होना अच्छा नहीं है। जैसे छाया और धूप में बैठने वालों में अंतर पाया जाता है। वैसे ही व्रत और अव्रत के आचरण व पालन करने वालों में अंतर होता है।
सोचने की बात यह है कि व्रत से पुण्य का बन्ध होता है, जो नियम से मुक्ति का कारण है और अव्रत से पाप का बन्ध होता है, जो दुःख का कारण है।
शब्दार्थ व्यवहारिक
व्रत- अच्छे कार्य का संकल्प, अव्रत- बुरे कारण का संकल्प, शुभभाव- सबके प्रति अच्छे विचार, अशुभ भाव- सबके प्रति बुरे विचार, मुक्ति- कर्म से रहित आत्मा, प्रतीक्षारत- इंतजार, अन्तरङ्ग, कारण- कर्म, बहिरंग कारण- अच्छे कार्य।
अनंत सागर
अंतर्भाव
उनचालीसवां भाग
22 जनवरी 2021, शुक्रवार, बांसवाड़ा
Give a Reply