हम सब का एक ही सपना, इच्छा, आकांक्षा होती है कि सब मनुष्य आकर सम्मान के साथ ,मधुर वचनों के साथ, चेहरे पर मुस्कान के साथ हम से बात करें। जब कोई हमारे सामने ऐसा करता है उस समय जो खुशी मिलती है यह वही जान सकता है जिसके साथ यह हो रहा हो। उस खुशी को किसी तरह से बताया नहीं जा सकता। बस हम उसका अनुभव कर सकते हैं क्यो की वह आत्मिक खुशी है।पर क्या कभी हमने किसी के साथ इस तरह बात की है? इतनी खुशी दी है? हमने क्या कभी पद के बड़े होने या सुख के समय में अहंकार तो नही किया था ? कभी धर्म, भगवंत, संत आदि का अविनय तो नही किया ? माता-पिता, राजधर्म के आदेश का उल्लंघन तो नही किया ? अगर नही किया तो हमें जो खुशी मिलेंगे उसे कोई नही रोक सकता मगर यह सब किया है तो दुनिया का कोई भी मनुष्य, देवता, भगवान उसके अशुभ कर्म के फल से हमें बचा नहीं सकता। फिर सुख की कल्पना करना बेकार है। पहाड़ के सामने हम जैसी आवाज निकालते है वैसी ही आवाज वापस लौटकर आती है। यह पहाड़ हमे कितना बड़ा कर्म सिद्धान्त समझा रहा है कि जैसा तुम दूसरों के साथ करोगे वैसा ही तुम्हारे जीवन मे कभी ना कभी जरूर लौटकर आएगा। भगवान श्रीराम को आप सब जानते हैं। यह भी जानते हैं कि उन्हें वनवास जाना पड़ा। भगवान होते हुए भी लम्बे समय के लिए वनवास गए तो ऐसा क्या हुआ था ? राम के जीवन पर लिखित जैन धर्म के एक ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है कि राम पूर्व भव में अपनी मां से सवांद कर रहे थे। मां कह रही थी कि आज घर पर श्रवण (मुनि) आने वाले है। उनके दर्शन करना, उनकी सेवा करना और उसके बाद ही कहीं जाना। लेकिन राम अपने दोस्तों के साथ वन जाना चाहते थे। मां ने जितनी बार श्रवण सेवा के लिए कहा उतनी ही बार राम में वन जाने को कहा। आखिर श्रवण सेवा किए बिना ही राम दोस्तो के साथ वन को चले गए। पूर्व भव के इसी वन जाने वाले कर्म ने अगले भव में राम को वनवास भेजा। सोचने की बात है कि श्रवण सेवा से अधिक मित्रों के साथ वन जाने को महत्व दिया राम ने अपने पूर्व भव में तो भगवान होते हुए भी अगले भव में वन-वन घूमना पड़ा। यह एक उदारहण है। इसी तरह के कई उदारहण शास्त्रों में पढ़ने को मिलते हैं।
अनंत सागर
अंतर्भाव
(पच्चीसवां भाग)
16 अक्टूबर, 2020, शुक्रवार, लोहारिया
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
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