पहली ढाल

तिर्यंच गति में असैनी और सैनी के दु:ख

कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो।
सिंहादिक सैनी ह्वै व्रूर, निबल पशू हति खाये भूर।।7।।

अर्थ – तिर्यंचगति में विकलत्रय से निकलकर कभी भाग्यवश यह जीव पंचेन्द्रिय ‘असैनी’ पशु हुआ तो मन के न होने से वह बिल्कुल अज्ञानी रहा और इसी तरह दु:खी रहा। जब ‘सैनी’ हुआ तो यदि सिंह आदि कुरुर पशु हो गया, तो उसने बहुत से निर्बल पशुओं को मार-मार कर खाया, अत: वहाँ भी घोर पाप का बंध किया।

विशेषार्थ – शिक्षा एवं उपदेश ग्रहण करने की शक्ति से युक्त अर्थात् मन सहित प्राणी सैनी कहलाते हैं तथा शिक्षा और उपदेश ग्रहण करने की शक्ति से रहित अर्थात् मन रहित प्राणी को असैनी कहते हैं।

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