पर्युषण पर्व जैन समाज में सबसे महत्वपूर्ण पर्व है। इसका शाब्दिक अर्थ है- परि+उषण, परि यानी चारों तरफ से और उष्ण का मतलब बुरे कर्मों/विचारों का नाश करना है। इस त्योहार की मुख्य बातें भगवान महावीर स्वामी के मूल पांच सिद्धांतों पर आधारित हैं। अहिंसा यानी किसी को कष्ट ना पहुंचाना, सत्य, अस्तेय यानी चोरी ना करना, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यानी जरूरत से ज्यादा धन एकत्रित ना करना।

दसलक्षण पर्व प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ा हुआ है। मानसून के दौरान मनाया जाने वाला यह त्योहार पूरे समाज को प्रकृति से जुड़ने का सीख भी देता है। इसे धर्म से इसलिए जोड़ा गया है क्योंकि जो भी सकारात्मक कार्य होता है, वह आखिर में धर्म ही तो है। पर्यावरण असंतुलन पूरी दुनिया में आज सबसे ज्यादा चिन्ता का विषय है लेकिन प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन तब बिगड़ता है, जब इंसान में क्रोध, अहंकार, माया, लोभ, असत्य, असंयम, स्वच्छन्दता, परिग्रह, इच्छा, वासना आदि के भाव पैदा होते हैं। इन्हीं बुरे भावों पर नियंत्रण के लिए दस धर्म पालन रूपी ब्रेक लगा दिया गया है। इसके पीछे भावना यही होती है कि प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन बना रहे और साथ ही हम धर्म का पालन करने के साथ ध्यान भी करते रहें।

दस दिनों तक चलने के कारण इसे दसलक्षण पर्व कहा जाता है। जैन धर्म के अनुयायी क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम,तप,त्याग,अकिंचन्य,ब्रह्मचर्य के माध्यम से आत्मसाधना करते हैं। यह दस धर्म जीने की कला सिखाने के साथ पापमल को धोने का काम करते हैं। श्वेताम्बर समाज आठ दिन तक पर्युषण पर्व मनाते हैं जिसे अष्टान्हिका कहते हैं। देखने में आ रहा है कि वर्तमान में लोग एक दूसरे की भावना को नहीं समझकर एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हैं। आपस का प्रेम समाप्त होता जा रहा है। आत्मिक ऊर्जा समाप्त होती जा रही है। इन सबसे बचने के लिए पर्युषण पर्व इंसान के जीवन में संजीवनी का काम करने वाला है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य,अकिंचन्य धर्म से मानसिक स्वस्थता आती है। मन और मस्तिष्क मे किसी के लिए, किसी भी प्रकार से शत्रुता, नीचा दिखाने, अप्रेक्षा के विचार नहीं रह जाते हैं और न ही किसी के प्रति वैरभाव रहता है। संयम, तप, ब्रह्मचर्य से शारीरिक स्वस्थता आती है।

जैन ग्रंथों में पर्युषण की परिभाषा देते हुए कहा गया है-‘परि समंतात् ऊषन्ते दह्यांते पापकर्माणि यस्मिन् तत् पर्यूषणम्’ अर्थात जो प