स्वाध्याय – 7 : अरिहंत परमेष्ठी के देवकृत 14 अतिशय

1. अर्धमागधी भाषा-भगवान् की अमृतमयी वाणी सब जीवों के लिए कल्याणकारी होती है तथा मागध जाति के देव उन्हें बारह सभाओं में विस्तृत करते हैं।
2. मैत्रीभाव-प्रत्येक प्राणी में मैत्री भाव हो जाता है। जिससे शेर-हिरण, सर्प-नेवला भी बैर-भाव भूलकर एक साथ बैठ जाते हैं।
3. दिशाओं की निर्मलता – सभी दिशाएँ धूल आदि से रहित हो जाती हैं।
4. निर्मल आकाश – मेघादि से रहित आकाश हो जाता है।
5. छ: ऋतुओं के फल-फूल एक साथ आ जाते हैं।
6. एक योजन तक पृथ्वी का दर्पण की तरह निर्मल हो जाना।
7. चलते समय भगवान् के चरणों के नीचे स्वर्ण कमल की रचना हो जाना।
8. गगन जय घोष-आकाश में जय-जय शब्द होना।
9. मंद सुगन्धित पवन चलना।
10. गंधोदक वृष्टि होना।
11. भूमि की निष्कंटकता अर्थात् कंकड़, पत्थर, कंटक रहित भूमि का होना।
12. समस्त प्राणियों को आनंद होना।
13. धर्म चक्र का आगे-आगे चलना।
14. अष्ट मंगल द्रव्य का साथ-साथ रहना। जैसे-छत्र, चवर, कलश, झारी, ध्वजा, पंखा, ठोना और दर्पण।

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