भाग चौंतीस : आचार्य श्री के प्रभाव से व्यसनी व्यक्ति ने छोड़े सारे कुकर्म और बन गया मुनि – अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज
एक बार एक व्यसनी व्यक्ति था। वह जैन होते हुए भी णमोकार मंत्र के बारे में भी नहीं जानता था और पाप कार्यों में लगा रहता था। एक दिन वह खोटे साधु का वेष धारण करके मुंबई से काशी पहुंच गया। यहां कई साधुओं के संपर्क में रहने के बाद भी उसके लौकिक कार्य के विचार नहीं छूटे। इसके बाद वह साधु के वेष में ही शोलापुर आ गया। यहां उसने साधु का चोला उतार फेंका और फिर से दुष्कर्म करने लगा। यह उसके पुण्य का उदय ही था कि कोन्नूर में आचार्य शांतिसागर महाराज आए। वह बदमाश भी एक कोने में खड़ा हो गया और दूसरों की देखा-देखी लेकिन बेमन से आचार्य श्री को नमस्कार करने लगा। तभी एक व्यक्ति ने उसकी ओर देखकर कहा कि यह जैन कुल में पैदा हुआ है लेकिन महा व्यसनी है और धर्म-कर्म से इसका दूर-दूर तक नाता नहीं है। इस पर आचार्य महाराज ने कहा कि इसका आज जरूर अच्छा होगा, इसने आज हमारे दर्शन किए हैं। जब उस व्यक्ति ने आचार्य श्री का चेहरा देखा तो उनका तेज देखकर वह हैरान रह गया और उसी समय उसके मन में वैराग्य का भाव दृढ़ हो गया। उसने मद्य, मांस और मधु, हिंसा, चोरी, झूठ, कुशील, लोभ का त्याग कर जिनेन्द्र भगवान के दर्शन की प्रतिज्ञा की और फिर धर्म का अध्ययन करने शेडवाल की पाठशाला में चला गया। कुछ समय बाद उसने आचार्य श्री से दीक्षा ले ली। वही व्यक्ति आगे चलकर मुनि पायसागर बना।
