पांच अणुव्रत में आज तीसरे अचौर्यणुव्रत की बात करेंगे। इस अणुव्रत का पालन करने पर न पुलिस की, न वकील की, न चौकीदार की, न घर-दुकान आदि में ताले की आवश्यकता होगी एवं आपसी विवाद भी नहीं होगा। बिना चिंता के सब अपना गृहस्थ जीवन यापन कर सकते हैं। गृहस्थ जीवन में जितनी भी उलझन है, इन अणुव्रत के नहीं होने से ही है। आज देश का विकास भी इसलिए नहीं हो रहा है, क्योंकि इस व्रत की श्रावक पालना नहीं कर रहे हैं।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अचौर्यणुव्रत का स्वरूप बताते हुए कहा है कि …
निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टं न हरति यन्त्र च दत्ते, तदकृशचौर्य्यादुपारमणम् ॥57 ॥
अर्थात- जो रखी हुई, गिरी हुई, भूली हुई और बिना दी गई अन्य की वस्तु को न लेता है और न दूसरे के लिए देता है, उसकी वह क्रिया स्थूल चोरी से परित्यागरूप अचौर्य अणुव्रत है।
स्वामी श्री समन्तभद्र ने अदत्त शब्द की व्याख्या करते हुए उसके तीन रूप निर्धारित किये हैं-1.निहित, 2. पतित 3. सुविस्मृत ।
कोई मनुष्य अपने पास किसी वस्तु को रख गया अथवा किसी के मकान में कोई धन कहीं रखा था। मकान बेचते समय उसे उस धन को निकालने का ध्यान नहीं रहा, ऐसे धन को लेना निहित धन की चोरी है। मार्ग में चलते समय किसी की कोई वस्तु गिर जाये उसे पतित कहते हैं। कोई मनुष्य अपने पास धरोहर के रूप में कुछ धन रख गया, पीछे भूल गया अथवा रखने वाले व्यक्ति की अकस्मात् मृत्यु हो गई और उसके उत्तराधिकारी पुत्र आदि को उसकी खबर नहीं। इस स्थिति में उस धन को माँगने के लिये कोई नहीं आता है तो ऐसा धन सुविस्मृत कहलाता है। अचौर्याणुव्रत का धारक मनुष्य ऐसे धन को अपने पास नहीं रखता। वह उसके उत्तराधिकारी को स्वयं ही वापिस करता है। अचौर्याणुव्रत का धारक मनुष्य आयकर, विक्रय कर तथा निगम कर आदि को नहीं चुराता तथा अपने भाइयों आदि के हिस्से को भी नहीं हड़पता।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 63 वां दिन)
शुक्रवार, 4 मार्च 2022, घाटोल