श्रावक : जय जयकार से ही पुण्य का संचय – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी

श्रावक : जय जयकार से ही पुण्य का संचय – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी निर्मल भावों से जिनेन्द्र भगवान के नाम का उच्चारण और जय

श्रावक : व्यसनों से मिलने वाले दुःख का वर्णन नहीं किया जा सकता – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी

श्रावक : व्यसनों से मिलने वाले दुःख का वर्णन नहीं किया जा सकता – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी एक व्यसन के प्रभाव से भी मनुष्य

श्रावक : धर्म के साथ जीने वालों के लिए कुछ भी असाध्य नहीं – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी

श्रावक : धर्म के साथ जीने वालों के लिए कुछ भी असाध्य नहीं – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी मनुष्य जन्म के बाद जो धर्म के

श्रावक : जो श्रावक बन धर्म-ध्यान करता है उसे सब खुशियां मिलती हैं – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी

श्रावक : जो श्रावक बन धर्म-ध्यान करता है उसे सब खुशियां मिलती हैं – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी चारों गति में मनुष्य गति श्रेष्ठ है।

श्रावक : जैन दर्शन में ये है शास्त्र के चार रूप – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी

श्रावक : जैन दर्शन में ये है शास्त्र के चार रूप – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी हम जो पढ़ते हैं वह जिसने लिखा है उस

श्रावक : आहार दान ऐसे करना चाहिए – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी

श्रावक : आहार दान ऐसे करना चाहिए – अंतर्मुखी मुनि पूज्यसागर जी रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक संख्या 113 में बताया गया है कि आहार दान देते समय

श्रावक : स्वयं को शुद्ध कर जाप करें – अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज

श्रावक : स्वयं को शुद्ध कर जाप करें – अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज कर्म निर्जरा और आत्मशांति के लिए श्रावक जाप करते

श्रावक : आहार दान से उत्तम कोई दान नहीं है – अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज

श्रावक : आहार दान से उत्तम कोई दान नहीं है – अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज अमितगति कृत श्रावकाचार में आहार दान का

श्रावक : इन सात स्थितियों में छोड़ देना चाहिए भोजन– अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज

श्रावक : इन सात स्थितियों में छोड़ देना चाहिए भोजन– अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज श्रावक जब भोजन करने बैठता है तो उसे

“कर्म सिद्धांत”

“कर्म सिद्धांत” प्राणीमात्र की उत्पत्ति पंचतत्वों से बने शरीर और आत्मा के समन्वय के साथ होती है। इन दोनों का मेल ही देह को सजीवता प्रदान करता है। किंतु क्या आप इस बात से परिचित हैं कि कई बार इस ( पुद्गल परमाणु अर्थात् ) ‘पंचभूत से बनी देह’ और ‘आत्मा’ के मूलभूत स्वभाव में अंतर देखा गया है। चलिए इन्हें अलग कर के पुनः विचार करते हैं …..सबसे पहले यह जान लें पंचतत्वों का अपना प्राकृतिक स्वभाव होता है और आत्मा का अपना। जब हम इन्हें एक से दो करते हैं तो इनके विचार, भाव, भावना आदि में अंतर दिखाई देने लगता है….. कभी अंतर बढ़ जाए तो शरीर और उसमें निवास करने वाली आत्मा के बीच मन मुटाव भी हो जाता है। शनैः शनैः विचारों का टकराव अपना विस्तार करता जाता है। हम इसे एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं  – एक घर में पहले एक व्यक्ति रहता था वह अपनी स्वेच्छा से घर को सजाता, रखरखाव करता और अपनी पूर्ण स्वतंत्रता के साथ उसमें रहता था। कुछ समय बाद उस घर में एक और व्यक्ति आ गया। अब पहले वाले व्यक्ति की स्वतंत्रता चली गई अब वह अपनी इच्छा से कुछ नहीं कर पा रहा था। कर भी लेता तो उसे अंदर ही अंदर डर रहने लगता, वह यह सोचने लगा न जाने दूसरे व्यक्ति को यह सब पसंद आएगा या नहीं। अब कर्म तो करता है किंतु अंदर ही अंदर डर पैर पसारता है। वह यह सोचने लगता है की मैं जो कर रहा हूं वह दूसरे को पसंद आएगा या नहीं। धीरे धीरे भाव, विचार और भावना में मेल ना बैठा तब क्लेश बढ़ने लगा और कषाय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। द्वेष का भाव उबाल लेने लगा। कुल मिलाकर जीवन अब अशांत हो गया। अब दोनों के मन में यह विचार आने लगा की कौन किसके हिसाब से चले ? कौन पहले घर छोड़ कर जाए ? दोनों का अहंकार झुकने की, सत्य स्वीकार करने की पहल नहीं करना चाहता था। दोनों का स्वभाव अलग अलग है। यह वह समझने को तैयार नहीं थे। यह रोज होने लगा प्रतिदिन तनाव बढ़ने ही लगा। फिर नकारात्मकता बढ़ी…. आत्माहत्या, मारने, नीचा दिखाने के भाव आने लगे। पर दोनों अपने अपने स्वभाव को समझने को तैयार नहीं थे। कुछ ऐसी ही दशा हम सबकी है, इस शरीर रूपी घर में। आत्मा और पुद्गल परमाणु ( भंगुर देह ) मिल गए हैं। अतः आत्मा अलग है और पुद्गल परमाणु अलग हैं। फिर उनका स्वभाव अलग है। जब दोनों एक शरीर रूपी मकान में रहते हैं तो आत्मा और पुद्गल परमाणु के विचार और स्वभाव आपस में नहीं मिलते है। आत्मा का स्वभाव “चेतना” का है। पुद्गल परमाणु निर्जीव व नाशवान है। दोनों शरीर रूपी घर में एक साथ रहते हैं क्योंकि दोनों कर्म से बंधे हैं। इन दोनों के मिलने से कर्म का जन्म होता है। कर्म ही दोनों के बीच अशांति और क्लेश पैदा कर देता है, तनाव बढ़ाने लगता है और जीवन अशांत हो जाता है। आत्मा अपने स्वभाव को भूल जाती है और पुद्गल परमाणु के चक्कर में आकर सुख- दुख के साथ संसार में घुमाती रहती है। यह ध्यान रहे, कि यह जो घुमा रहा है वही “कर्म” है। आगे जरूरत पड़ी तो कर्म को और समझेंगे।