आचार्य शांतिसागर महाराज कहते थे कि हिंसा करना महापाप है। धर्म का प्राण और जीवन-सर्वस्व अहिंसा धर्म ही है। सत्ता किसी की भी हो, शासन किसी का भी हो, उसे अहिंसा धर्म को नहीं भूलना चाहिए। इसके द्वारा ही सच्चा कल्याण होता है। आचार्य श्री के अनुसार, कुछ लोग यह सोचते हैं कि जैनधर्म में तो सांप-बिच्छू तक मारना मना है, अगर हम इस हद तक अहिंसा का पालन करते हैं तो राज्य कैसे चल सकेगा। इसके जवाब में उनका कहना था कि जैनधर्म में सर्वदा संकल्पीहिंसा न करने को कहा गया है। गृहस्थ विरोधी हिंसा नहीं छोड़ सकता। जैनधर्म के धारक मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर आदि बड़े-बड़े राजा हुए हैं। गृहस्थ के घर में चोर घुस आए या कोई उस पर हमला कर दे तो वह उन्हें नहीं मारेगा, वह अपना बचाव करेगा, बिल्कुल करेगा। दरअसल जैन धर्म में निरपराधी जीव की हिंसा नहीं है। जैनधर्म का पालन करने वाला मांस नहीं खाएगा। वह शिकार नहीं खेलेगा। इस प्रकार निरपराधी जीव की रक्षा करते हुए और संकल्पी हिंसा का त्याग करते हुए जैन नरेश अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठा स्थापित करता है। महाराज श्री के अनुसार, श्रावकों के अष्टमूलगुणों में यही अहिंसा का भाव है। यदि किसी को भी अपना कल्याण करना है तो जिनवाणी और आत्मा पर विश्वास रखना चाहिए।
