एक बार फलटण में हीरक जयंती के समारंभ में अनेक धनकुबेरों का आगमन हुआ। उस समय आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने वहां आए श्रीमंतों से कहा कि कर्मों के बंधन से छूटकर मोक्ष पाने के लिए आपको हमारे समान दिगंबरत्व को धारण करना होगा क्योंकि इस पद को अंगीकार किए बिना मोक्ष को प्राप्त करना संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि यह जीव आगे से दुखी न हो, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को व्रत धारण कर व्रती बनना चाहिए। जब भी कोई आचार्य श्री की प्रशंसा करता था तो वह यही कहते थे कि उन्हें अपनी प्रशंसा सुनकर राई के बराबर भी आनंद नहीं मिलता। इस प्रशंसा से कभी किसी को स्वर्ग नहीं मिलता। कोई हमारी प्रशंसा करे या फिर निंदा करे, इन दोनों का हमारी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है। वह कहते थे कि कोई भी अगर उनकी मूर्ति बनाकर पूजा करता है तो इससे उनका क्या हित होगा। हमारी आत्मा एक है। सुख-दुख भोगने वाली भी वही एक है। इसे किसी की प्रशंसा या निंदा से कोई फर्क नहीं पड़ता। आत्मा जैसा करती है, मनुष्य वैसा ही भोगता है और इसमें ईश्वर भी सहायता नहीं कर पाता।

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