कहानी : उत्तम तप आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है – अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्यसागर जी महाराज

बात धार्मिक नगरी उज्जयिनी की है। वहां एक राजा थे। उनके दो बेटे थे- भर्तृहरि और शुभचंद्र। एक दिन दोनों तपस्या करने चले गए। भर्तृहरि एक मंत्र-तंत्र वाले तपस्वी के पास गए और शुभचंद्र ने एक परमपूज्य दिगम्बर मुनिराज की शरण ली। दोनों को तपस्या करते-करते 12 वर्ष बीत गए।

एक दिन भर्तृहरि ने तपस्या से किसी भी वस्तु को सोने में बदलने वाला विशेष तरल अर्जित किया। उस तरल को वे अपने भाई शुभचंद्र के साथ साझा करना चाहते थे। उन्होंने अपने अनुयायी को शुभचंद्रजी के पास भेजा, लेकिन शुभचंद्रजी महाराज ने उसे लौटा दिया। अनुयायी ने वापस आकर भर्तृहरि को सारी बात बताई। इसके बाद भर्तृहरि स्वयं अपने भाई से मिलने गए और कहा- भाई यह कोई साधारण तरल नहीं है। मैंने 12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद इसे हासिल किया है।

शुभचंद्र महाराज ने पूछा- क्या ये आपकी तपस्या का फल है? भर्तृहरि ने कहा हाँ। इस पर शुभचंद्रजी ने अपने पैरों के पास से कुछ मिट्टी ली और उसे चट्टान पर फेंक दिया। वह पूरी बड़ी चट्टान सोने में बदल गई। इससे भर्तृहरि चौंक गए। वह शुभचंद्र महाराज के पैरों पर गिर गए और कहा कि मैंने अपनी मूर्खता व अज्ञानता के कारण आपके तप के महत्व को नहीं समझा। झूठी तपस्या में पड़कर मैंने बहुत पाप कमाए हैं। अब आप ही मुझे उत्तम तप का रास्ता दिखाएं। इसके बाद भर्तृहरि ने भी अपने भाई शुभचंद्रजी महाराज की तरह ही दिगंबरी दीक्षा ली।

कहानी से सीख

इसका अर्थ है कि उत्तम तप वह नहीं होता, जिसे सांसारिक सुखों को अर्जित करने के लिए जाना जाता है। उत्तम तप सांसारिक दुःख से छुटकारा पाने के लिए है और आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है।

अनंत सागर
कहानी
चवालीसवां भाग
28 फरवरी 2021, रविवार, भीलूड़ा (राजस्थान)

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