भक्ति

भक्ति पहले स्वार्थ से करता था, अब निस्वार्थ करता हूं भक्ति यही प्रथम सीढ़ी है, पहचान की। लेकिन नहीं अपनाया अब तक।

संस्कार

संस्कार “संस्कार के बिना नहीं दिखती परमात्मा बनने की राह पहचान नहीं पाया इन्हें, इसलिए भटक रहा हूं संस्कार की खोज में।”

ज्ञान

ज्ञान ज्ञान मेरा अपना फिर भी नहीं है, कब किसे आएगा कोई नहीं जानता। प्रतिदिन करता हूं आराधना अपने आराध्य की फिर भी रिक्तहै झोली

विचार

विचार ब्रह्माण्ड में तैरते विचार आते हैं और पलभर में कई बार खो भी देते हैं अपना अस्तित्व। विचार ही तो हैं जो बदल जाते

गुण

गुण देखकर दूसरों के, अच्छे-बुरे कर्म से, अपनाने, छोडऩे का पर होता नहीं ऐसा, ऐसा क्या करूं, आएं चले जाएं

चाह

चाह अब थक गया हूं, कुछ होता नहीं, अब चाह है सोने की, स्थान ढूंढ रहा हूं, कब-कैसे मिले, पता नहीं

ध्यान

ध्यान बाकी यही है करना, जो अब तक नहीं किया, कहां से शुरू करूं पता नहीं, यही चिंतन, विचार करता हूं, कहां से शुरू करूं

कर्म

कर्म हर राह पर साथ यही है, कभी गम कभी खुशी दे जाते हैं वर्तमान, भूत, भविष्य इन्हीं पर निर्भर हैं पुण्य-पाप इसी के कहने

पुण्य

पुण्य स्वर्ग से मोक्ष का सफल करवाता है भक्ति, आराधना, उपासन इसका टिकट दान, वात्सल्य, करूणा है बुकिंग स्थल देव, शास्त्र, गुरु बुकिंग मास्टर इसके