धर्म से मिलता है अनंतकाल तक का सुख -अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज

संसारी इच्छाओं की पूर्ति कभी भी पूरी नहीं की जा सकती है, क्योंकि इनका कोई अंत नही है । धर्म की भावना के साथ जीने

सम्यगदर्शन से ही जीवन का उद्धार -अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज

एक शेर तीर्थंकर  महावीर बना । शास्त्र में आया है कि शेर सिंह हिरण का शिकार कर रहा था, उसी समय चारणऋद्धिधारी मुनि जयंत-विजयंत आकाश

सर्वकल्याण का भाव पैदा करता है तीर्थंकर पद का पुण्य बंध – अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज

ईश्वर बनने की चाह में प्राणी ईश्वर की आराधना करता है। तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण में कहा गया है कि अरिहंत के गुणों की प्राप्ति

संसार के सारे सुख पुण्य से मिलते हैं-अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज

संसार में सारे सुख, सम्मान, पद, कुल, जाति, धन, बड़प्पन, इन्द्र आदि पद सब पुण्य से मिलता है। पुण्य का बन्ध सम्यग्दर्शन के साथ ही

तीर्थंकर की वाणी पर ना हो कोई संदेह-अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज

जो धर्म की बात को किसी प्रकार के संदेह से रहित जानता है। वह ज्ञान सम्यग्ज्ञानी है। अर्थात जो हर बात को हर दृष्टि से

तीर्थंकर की वाणी कर्म निर्जरा का कारण -अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज

तीर्थंकर की वाणी को सहजता से समझने के लिए उसे चार भागों में विभाजित कर प्रकाशन किया गया है। जो प्रकाशन हुआ है वही तीर्थंकर

करणानुयोग पापों से बचाने में सहायक- अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज

जैन शास्त्रों को समझने की दृष्टि से चार भागों में विभाजित किया गया है । पहले भाग प्रथमानुयोग का स्वरूप हमने पहले पढ़ लिया। दूसरे

आचरण से ही व्यक्ति की पहचान-अंतर्ज्ञानी मुनि पूज्य सागर महाराज

आचरण के बिना सब व्यर्थ है । व्यक्ति की पहचान उसके आचरण से होती । वह क्या सोचता है, क्या बोलता है, क्या करता है

शरीर अजीव, आत्मा जीव- अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज

जिस शरीर के साथ जन्म हुआ है, वह वास्तव में हमारा नहीं है। वहीं दुख और संसार परिभ्रमण का कारण है। शरीर पुद्रल (अजीव) है

संसार में दुखों का अंत नहीं- अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज

संसार में दुखों का कोई अंत नहीं है। दुखों का अंत तो मुक्त होने पर ही है। जीव की दो ही गति है। पहली संसारी