पहली ढाल
कृति की प्रामाणिकता और निगोद के दु:ख
तास भ्रमन की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा।
काल अनन्त निगोद मंझार, वीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥4।।
अर्थ – इस जीव के संसार-भ्रमण की बहुत लम्बी कहानी है, किन्तु कुछ थोड़ी-सी, जैसी श्रीगुरु-पूर्वाचार्यों ने वर्णन की है, वैसी ही यहाँ मैं भी कह रहा हूँ। इस जीव ने निगोद में एक इन्द्रिय जीव का शरीर धारण कर अनन्त काल बिताया है।
विशेषार्थ – जिस काल को सर्वावधि ज्ञान भी नहीं जान सकता, मात्र केवलज्ञान ही जान पाता है, उस अपरिमित काल को अनन्त काल कहते हैं। साधारण नामकर्म के उदय से एक शरीर के आश्रित अनन्तानन्त जीवों का समान रूप से रहना निगोद कहलाता है अथवा जीव की एक पर्यायविशेष, जिसमें एक श्वाँस के समय का अठारहवाँ भाग पूरा होते ही मरण हो जाता है। निगोद के दो भेद हैं-नित्य निगोद, इतर निगोद।
नित्य निगोद – जहाँ के जीवों ने अनादिकाल से आज तक त्रस की पर्याय प्राप्त नहीं की, वह नित्य निगोद कहलाता है।
इतर निगोद – निगोद से निकलकर दूसरी पर्याएँ पाकर पुन: निगोद में उत्पन्न होना इतर निगोद कहलाता है।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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