जीव राग-द्वेष के कारण अपना संयम खो देता है। उसे सही- गलत बात का ध्यान नहीं रहता है। बस वह राग में या द्वेष में आकर हिंसा आदि पाप जैसे कार्य कर जाता है। रावण को सीता के प्रति राग आ गया तो उसका आचरण दूषित हुआ और सीता का हरण किया तो पाप का बन्ध हुआ। भगवान पार्श्वनाथ के साथ कमठ ने दस भव तक द्वेष रखा तो वह नरक गया। राग-द्वेष से दूर आचरण को व्यवस्थित करना होगा। जैसे जैसे आचरण निर्मल, पवित्र होगा, वैसे वैसे जीवन में से राग-द्वेष कम होगा। इससे हिंसा आदि पाप भी जीवन से कम होते जाएंगे। गृहस्थ, ब्रह्मचारी, मुनिराज और ध्यानस्थ मुनि के आचरण में अंतर होता है। जैसे वह संयम में आगे बढ़ता है राग-द्वेष कम होता है और चारित्र मजबूत होता है ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहते हैं कि …
रागद्वेषनिवृत्तेर्हिसादिनिवर्त्तना कृता भवति ।
अनपेक्षितार्थवृत्तिः, कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥48॥
अर्थात- रागद्वेष की निवृत्ति से हिंसादि पापों की निवृत्ति स्वयं होती है, क्योंकि अपेक्षा से रहित आजीविका वाला कौन पुरुष राजाओं की सेवा करता है ? अर्थात् कोई नहीं।
चारित्र धारण करने का मूल प्रयोजन रागद्वेष की निवृत्ति करना है। रागद्वेष से प्रेरित होकर ही मनुष्य की हिंसादि पापों में प्रवृत्ति होती है। अतः जिसने रागद्वेष की निवृत्ति कर ली, उसने हिंसादि पापों की निवृत्ति स्वयं कर ली। रागद्वेष की उत्पत्ति का प्रमुख कारण मिथ्यात्व तथा अज्ञान भाव है। मिथ्यात्व के कारण इस जीव की ऐसी मान्यता होती है कि पर-पदार्थ सुख-दुःख के कारण हैं। इस मान्यता के अनुसार वह जिन पदार्थों से सुख की उत्पत्ति मानता है, उनमें राग करता है और जिन पदार्थों से दुःख की उत्पत्ति मानता है, उनसे द्वेष करता है। सुख-दुःख का अन्तरंग कारण मनुष्य का पूर्वोपार्जित शुभ-अशुभ कर्म है, परन्तु मिथ्याज्ञान के कारण यह जीव अन्तरंग कारण की ओर तो दृष्टि देता नहीं है, मात्र बहिरंग कारण- स्त्री, पुत्र तथा शत्रु, सिंह आदि को सुख दुःख का कारण मान उनसे राग-द्वेष करता है। तात्पर्य यह है कि यदि राग-द्वेष से बचना है तो पहले मिथ्यात्व और मिथ्या ज्ञान को दूर कर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को प्राप्त किया जाए, उसके बाद चारित्र की प्राप्ति सरल हो जाती है ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 54वां दिन)
बुधवार, 23 फरवरी 2022, घाटोल
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