पहली ढाल

नरक की भूमि स्पर्श और नदीजन्य दु:ख

तहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस डसें नहिं तिसो।
तहाँ राध-शोणित-वाहिनी, कृमि-कुल-कलित-देह दाहिनी।।10।।

अर्थ – उस नरक की भूमि के स्पर्श करने मात्र से ही इतना कष्ट होता है कि जितना हजारों बिच्छुओं के एक साथ शरीर में काटने पर भी नहीं होता है। नरक में पीव और रक्त की वैतरणी नदी बहती है, जो कीड़ों के समूहों से भरी हुई है और यदि कोई भूमि के स्पर्श से उस नदी में शांति की आशा से घुस जाए, तो उसका वह खून भरा पानी शरीर को दग्ध करने वाला-जलाने वाला ही होता है।

विशेषार्थ – वहाँ खून-पीव आदि सप्त धातुएँ एवं विकलत्रय जीव नहीं होते किन्तु नारकी जीव विक्रिया से स्वयं उस रूप बन जाते हैं।

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