भाव को सदैव विशुद्ध बनाए रखना चाहिए। भावों की अशुद्धि के कारण जीवन में संकट के समय परिवार वाले भी साथ नहीं देते हैं। पद्मपुराण पर्व 97 में आए प्रसंग से अशुद्ध भाव रखने वालों को प्रेरणा लेनी चाहिए।
सीता वनवास के समय सोचती हैं- मैं अपयशरूपी दावानल से जली दुःखिनी, श्रीराम की रानी इस दुःखदायी वन के बीच अकेली और कीड़े, कठोर डाभ और तीक्ष्ण पत्थरों के समूह से युक्त पृथ्वीतल में कैसे रहूंगी? यदि ऐसी अवस्था मिलने पर भी ये प्राण मुझे में स्थित हैं, तब तो यही कहना चाहिए कि मेरे प्राण वज्र से निर्मित हैं। अहो हृदय! ऐसी अवस्था को पाकर भी तुम सौ टुकड़े क्यों नहीं हो जाते हो। इससे जान पड़ता है कि तुम्हारे समान दूसरा साहसी नहीं है। अब क्या करूँ? कहां जाऊं? किससे कहूं? किसका आश्रय लूं? कैसे ठहरूं? हाय मात:! क्या तुम मुझे नहीं जानते हो? हा मात:! तुम मेरी रक्षा क्यों नहीं करती हो? अहो विद्याधरों के अधीश भाई कुण्डलमण्डित! यह मैं कुलक्षणा दुःखी रूपी आवर्त में भ्रमण करती यहां पड़ी हूं। खेद है कि मैं पापिनी, पति के साथ वैभव से, पृथ्वी पर जो जिन मंदिर हैं, उनमें जिनेन्द्र भगवान की पूजा नहीं कर सकी।
तो आपने पढ़ा यह प्रसंग, सीता का पूरा परिवार यह जानते हुए भी कि वह सती हैं, फिर भी इस दुख के समय कोई भी साथ देने वाला नहीं मिला। तो प्रेरणा लेनी चाहिए कि अशुद्ध भावों के साथ जीवन व्यतीत नहीं करूंगा। मन को विशुद्ध रखने वाले कार्य करूंगा।
अनंत सागर
प्रेरणा
24 जून 2021,गुरुवार
भीलूड़ा (राज.)
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