जीवन में दुःख के कारणों का निरंतर चिंतन करते रहना चाहिए। इससे दुःख के कारण धीरे-धीरे छूटते जाते हैं। पद्मपुराण के पर्व 14 में अनंतवीर्य मुनिराज रावण आदि को नरक के दुःखों का चिंतवन बताते हुए कहते हैं-
हे भव्यजीव, यह जीव चेतना लक्षण वाला अनादिकाल से निरंतर अष्टकर्मों से बंधा चारो गतियों में भ्रमण करता है। चौरासी लाख योनियों में नाना प्रकार इंद्रियों से उत्पन्न हुई वेदना को भोगता हुआ, प्रति समय दुःखी होकर रागी द्वेषी मोहि हुआ कर्मों के तीव्र, मंद, मध्य फल से कुम्हार के चक्के के समान प्राप्त किया है।
चारो गतियों का भ्रमण उसमें अति दुर्लभता से मनुष्य जन्म प्राप्त कर आत्महित नहीं करता। रसना इन्द्रिय का लोलुपि, स्पर्शादि पांचों इंद्रियों के विषयों में लीन होकर अति निंद्य पाप कर्म करके नरक में जन्म लेता है।
जो पापी क्रूरकर्मी, धन के लोभी, माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, मित्र आदि परिवार को मारता है, वह नरक में गिरता है। तथा जो गर्भपात करते एवं बालक की हत्या करते हैं, वृद्धों एवं स्त्रियों को मारते हैं, मनुष्यों को रोके, उसे पकड़े, बांधे, मारे या फिर पशु-पक्षी, हिरणादि को मारते हैं, उनके परिणाम धर्म से रहित हैं। जो लोग कुबुद्धि से जलचर, थलचर जीवों की हिंसा करते है, उसके परिणाम भी धर्म से रहित होते हैं। वे जीव नरक में जन्म लेते हैं।
शब्दार्थ व्यवहारिक
चेतना- जीव सहित, वेदना- कष्ट, जलचर-जल में रहने वाले जीव, थलचर- पृथ्वी पर रहने वाले जीव।
अनंत सागर
अंतर्भाव
इकतालीसवां भाग
5 फरवरी 2021, शुक्रवार, बांसवाड़ा
Give a Reply