पद्मपुराण में एक प्रसंग है जिसमें रावण ने राजा इंद्र को जीता और अपनी कुल परंपरा से चली आ रही लंकानगरी को पुनः प्राप्त किया। यह प्रसंग कर्म सिद्धंत को बताता है कि रावण क्या से क्या हो गया था।
मैं रावण… मेरी दिग्विजय का लक्ष्य था, अपनी वंश परंपरा की राज्य नगरी लंका को पुन: प्राप्त करना। दिग्विजय मात्र शक्ति बढ़ाकर राजा इंद्र पर विजय प्राप्त करने के लिए थी ना कि धनवृद्धि के लिए। आपको तो पहले भी बताया मैनें कि राजा इंद्र ने ही लंका पर अधिपत्य स्थापित कर मेरे दादा सुमाली के भाई माली को मारा था और उन्हें लंका से बाहर कर दिया था।
चूंकि विजयार्थ पर्वत का यह राजा स्वयं को साक्षात् सौधर्म इंद्र और अपनी नगरी को स्वर्ग समझता था तथा अपने अधीनस्थ राजाओं को देव मानता था इसलिए इसकी सेना देवसेना कहलाई। और तो और इसने अपने हाथी का नाम भी ऐरावत रख लिया था। मैं राक्षस वंश का था तो मेरी सेना राक्षस सेना कहलाई, इसलिए जब मैनें इस पर विजय प्राप्त की तो लोकव्यवहार में कहा गया कि मैनें स्वर्ग के इंद्र को जीत लिया जो गलत था।
खैर यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं। जब राजा इंद्र से युद्ध के दौरान दोनों ओर के सैनिक बड़ी संख्या में आहत होने लगे तो मैनें स्वयं अकेले ही इंद्र को युद्ध के लिए ललकारा। वैसे भी मैनें दिग्विजय के दौरान इस बात पर विशेष ध्यान दिया था कि मैं विपरीत राज्य के राजा को ऐसे बंदी बना लूँ कि कम से कम सैनिकों को युद्ध में प्राण गवाने पड़ें, सो यहाँ भी ऐसा ही सोचा। हम दोनों के बीच भयानक युद्ध हुआ और अंत में वह समय आ ही गया जब मैनें इंद्र को बंदी बना लिया और अपनी लंका को वापस प्राप्त कर लिया। अठारह साल तक दिग्विजय के सफर के बाद हमें यह दिन देखने को मिला जब मेरी वंश परंपरा की नगरी और राज्य मेरा था।
राजा इन्द्र के पिता सहस्त्रार मेरे पास आए। उनको मैनें विनय पूर्वक सम्मान दिया। जब उन्होंने इन्द्र को बंधन मुक्त करने को कहा तो मैनें उनसे कहा कि मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। आप मेरे पिता तुल्य हैं इसलिए इंद्र मेरा चौथा भाई है। वह जितना चाहे राज्य ले और वहाँ राज्य करे मुझसे इससे कोई तकलीफ नहीं, मुझे तो बस मेरे वंश की राज्यस्थली लंका नगरी वापस मिल गई और मुझे कुछ नहीं चाहिए। वैसे भी मैं दिग्विजय के बाद प्रत्येक राजा को उसका राज्य शासन करने के लिए दे आया हूँ। आपको पता है उस समय मेरे एक शत्रु का पिता मेरी प्रशंसाकर रहा था, और मैं अपने शत्रु को क्षमा कर रहा था। मैनें इंद्र को छोड़ दिया और लंका विजय पर उत्सव हुआ। मेरे दादा सुमाली ने उस उत्सव के दौरान बताया था कि एक मुनिराज ने उन्हें कहा था कि रावण ही तुम्हें लंका वापस दिलवाएगा… और हुआ भी वही। इसका मतलब यह मेरा कर्त्तव्य कर्म था इसलिए मैनें दिग्विजय हासिल की। यही मेरा कुलधर्म भी था।
अनंत सागर
कर्म सिद्धांत
पैतालीसवां भाग
9 मार्च 2021, मंगलवार, भीलूड़ा (राजस्थान)
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