यह मां के पुण्य का प्रताप था या फिर सातगौड़ा के पुण्यों की महीमा, इसका ज्ञान तो केवल भगवान को ही हो सकता है लेकिन देखा जाए तो पुण्य तो दोनों का ही था। एक-दूसरे के पुण्य से एक मां को संस्कारित बेटा और एक बेटे को एक संस्कारित मां मिल गई। सत्यवती मां और सातगौड़ा के कारण घर का वातावरण ही त्याग, संयम का रहता था। ऐसे में 10 वर्ष का बच्चा भी त्याग की बातें करता था। बात है वर्ष 1952 की, जब पं.सुमेरचन्द्र दिवाकर सातगौड़ा के घर भोजन करने बैठे। उस दिन अष्टमी थी इसलिए सुमेरचन्द्र जी को नमक नहीं खाना था। इसलिए भोजन में नमक नहीं था। सुमेरचन्द्र दिवाकर के पास घर का बालक भीमकुमार भी भोजन करने बैठा था। भीमकुमार को भोजन की थाली दी गई तो उसमे नमक मांगा तो उसी समय उनकी बहन सुशीला बोली, जब तो स्वामी(महाराज) बनोगे और बिना नमक का आहार लेना होगा तब क्या करोगे? उस समय किससे मांगोगे? सातगौड़ा के बड़े भाई देवगौड़ा भी मुनि बने और निर्दोष मुनि चर्या का पालन कर 97 वर्ष की उम्र में समाधिमरण किया। सातगौड़ा की मां सत्यवती अष्टमी-चतुर्दशी को उपवास करती थीं। उनके घर में 12 महीने ही शुद्ध भोजन बनता था और गांव में कभी कोई साधू आ जाए तो उनका आहार भी उन्हीं यहां होता था। सातगौड़ा के पिता भीमगौड़ा ने 16 वर्ष पर्यन्त दिन में एक बार भोजन-पानी लेने के नियम का निर्वाह किया था और 16 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत रखा था। उन्होंने अंतिम समय तक श्रावक रहते हुए समाधिमरण किया था।
इस बात से तो यह सिद्ध हो जाता है,जो शिक्षा बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में नहीं मिलती, वह घर के अच्छे वातावरण से मिलती है। जिस परिवार के लोगों में संस्कार और एक-दूसरे के प्रति विनय और सम्मान का भाव होता है, उस घर के लोगों को धर्म के रास्ते पर आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। इन्हीं सब संस्कारों के कारण सातगौड़ा की बालक अवस्था में भी उनकी क्रिया विवेकहीन नहीं होती थी। इसी कारण वह गंभीर, शांत, करुणा और प्रतिभा के पुंज थे।
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