तीसरी ढाल
सम्यक्त्व के अंगों का वर्णन
जिन वच में शंका न धार ,वृष भव-सुख-वांछा भानै।
मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व कुतत्त्व पिछानै।।
निजगुण अरु पर औगुण ढाँकैं , वा जिन-धर्म बढ़ावै।
कामादिक कर वृषतैं, चिगते, निज पर को सु दिढ़ावै।।12 ।।
अर्थ – 1. श्री जिनेन्द्र भगवान के कहे गये वचनों में शंका नहीं करना एवं उनके उपदेशों में अटल श्रद्धा रखना, यह नि:शंकित अंग है। 2.धर्म सेवन करके उसके बदले संसार के सुखों की इच्छा न करना, नि:कांक्षित अंग है। 3. मुनिराज (या अन्य किसी धर्मात्मा) के शरीर को मैला देखकर घृणा न करना, सो निर्विचिकित्सा अंग है। 4. तत्त्व-खरे (सच्चे) और कुतत्त्व-खोटे तत्त्वों (सिद्धान्तों) की परख कर मूढ़ताओं और अनायतनों में नहीं फसना, सो अमूढ़दृष्टि अंग है। 5.अपने गुणों को छिपाना और दूसरों के अवगुणों को प्रगट न करना तथा आत्मधर्म को बढ़ाना (निर्मल रखना-दूषित नहीं होने देना), सो उपगूहन अंग है। 6. काम-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि किसी विकारवश से यदि धर्म से कोई चलायमान हो गया हो, तो उस समय जिस तरह बने, अपने को और उसको धर्म में दृढ़ करना, सो स्थितिकरण अंग है। इस छन्द में आठ अंगो में से 6 अंग का वर्णन किया आगे छन्द में 2 अंगों का वर्णन जाएगा ।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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