आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की चर्या पंचम काल में भी चतुर्थ काल जैसे थी। आचार्य श्री प्रतिदिन 40 से 50 पेज का स्वाध्याय करते थे। आचार्य श्री से एक बार सुमेरचन्द्र दिवाकर ने पूछा, आप इतना स्वाध्याय इसलिए ही करते हैं न ताकि मन रूपी बंदर चंचल न हो। महाराज श्री ने उत्तर दिया, हमारा मन चंचल नहीं है। चंचलता का कारण परिग्रह है, जो हमारे पास नहीं है। जो परिग्रह करते हैं, उन्हें ही चिंता होती है। जब हमारे पास कोई परिग्रह नहीं है तो मन क्यों चंचल होगा। हमारा मन हमारे अंदर ही होता है क्योंकि बाहर कोई भी उसे स्थान देने वाला है ही नहीं। आचार्य श्री आत्मसाधना के बारे में कहते थे कि आत्मध्यान में शरीर का पता नहीं चलता है, तब अन्य बाहरी बातों का क्या पता चलेगा। आचार्य श्री कहते थे कि आत्मध्यान में इंद्रीय सुख नहीं है। वहां आत्मा का आनंद है। इंद्रीयजन्य सुख तो पागल के सुख के बराबर है। स्वरूप को भूलने वाला पागल की तरह बाहर की ओर सुख देखता है और इससे ध्यान करने प्रारम्भ में कठिनाई होती है लेकिन अगर हम लगातार अभ्यास करें तो आत्मध्यान की प्रक्रिया सरल होती चली जाती है।
13
Jun
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