जो धर्म की बात को किसी प्रकार के संदेह से रहित जानता है। वह ज्ञान सम्यग्ज्ञानी है। अर्थात जो हर बात को हर दृष्टि से जानकर सकारात्मक सोच रखता है, वह सम्यग्ज्ञानी है। ऐसा व्यक्ति तीर्थंकर भगवान के कहे हुए ज्ञान को न एक अक्षर कम और न एक अक्षर अधिक जानता, बल्कि जैसा है वैसा ही मानता है। काल का प्रभाव है, थोड़ा बहुत चलता है, ऐसा कहकर तीर्थंकर के कहे हुए ज्ञान में कुछ अपने हिसाब से जानना भी और नकारात्मक दृष्टि से जनाना भी मिथ्याज्ञान है। सम्यकज्ञान तो तीनों काल में एक समान जानता है। हम देखते हैं एक बिंदु के कारण अर्थ का अनर्थ हो जाता है। वैसे ही तीर्थंकर की वाणी है।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यग्ज्ञान का स्वरुप लिखते हुए कहा कि …
अन्यूनमनतिरिक्तं, याथातथ्यं विना च विपरीतात् ।
निःसंदेहं वेद यदाहुस्तानमामिनः ॥42 ॥
अर्थात-जो वस्तु के स्वरूप को न्यूनता रहित अधिकता रहित विपरीतता रहित और संदेह रहित जैसा का तैसा जानता है। उसको आगम के ज्ञाता गणधर आदि देव सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
कर्म निर्जरा वाली क्रिया को जो बिना किसी प्रकार के संदेह से रहित जानता है। वह सम्यग्ज्ञान है। मनुष्य में कर्म के अनुसार सम्यज्ञान कम- अधिक हो सकता है । जिसके जितने अशुभ कर्म की निर्जरा हो जाएगी, उसका सम्यग्ज्ञान उतना अधिक निर्मल हो जाएगा। सम्यग्ज्ञान के पांच भेद किए हैं। मति, श्रुत,अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान। वर्तमान में यह ज्ञान शास्त्र स्वाध्याय से संभव है। कोई यह कहे कि मात्र केलवज्ञान ही वस्तु को न्यूनतम और अधिकतम से रहित जानता है तो यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि यहां जो सम्यग्ज्ञान की परिभाषा दी है उसमें केलवज्ञान की विवक्षा की गई है। केवलज्ञान तो समस्त अशुभ कर्मों के नाश के बाद ही हुआ है तो वहां ज्ञान में संदेश उत्पन्न करने वाले कारण ही नही रहे हैं, इसलिए मति आदि ज्ञान ही संदेह रहित होता है। यह जानना सम्यग्ज्ञान है ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 48वां दिन)
गुरुवार, 17 फरवरी 2022, बांसवाड़ा
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