आगम ( जैन शास्त्र) के मूल कर्ता तीर्थंकर भगवान हैं। आज हमारे पास जितना भी आगम है, वह सब तीर्थंकर की वाणी का ही हिस्सा है। तीर्थंकर भगवान बिना स्वार्थ, बिना प्रयोजन के प्राणी मात्र को सम्यग्दर्शनादि, छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का उपदेश दिव्य ध्वनि के माध्यम से देते हैं।
दिव्य ध्वनि में राग आदि नहीं। दिव्य ध्वनि ओम्कार रूप होती है और प्राणी मात्र को समझ में आ जाए, इसलिए ओम्कार रूप दिव्य ध्वनि 18 महाभाषा और 700 लघुभाषा में परिवर्तित हो जाती है। इस दिव्य ध्वनि की भाषा अर्घमाघवी है। तीर्थंकर की वाणी व्यक्ति विशेष लिए नहीं खिरती, बल्कि प्राणी मात्र के पुण्योदय से सब के लिए खिरती है। तीर्थंकर की इच्छा हो या ना हो पर समय आने पर अपने आप खिरने लगती है।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आगम का स्वरूप बताते हुए कहा है कि..
अनात्मार्थं विना रागैः, शास्ता शास्ति सतो हितम् ।
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते ॥8।।
अर्थात- शास्ता (आगम) हितोपदेशक आप्त भगवान् राग रहित अर्थात् ख्याति, लाभ, पूजा आदि की अभिलाषा के बिना अपना प्रयोजन न होने पर भी सज्जन एवं भव्यजीवों के हित को कहते हैं, जैसे बजाने वाले के हाथ के स्पर्श से शब्द करता हुआ मृदंग।
तीर्थंकर भगवान मावन मात्र के कल्याण की भावना से उपदेश देते हैं। जैसे बजता हुआ मृदंग शिल्पी या अन्य और किसी से कोई प्रायोजन नहीं रखता, बल्कि बिना स्वार्थ के वह मधुर आवाज करता है। अभिप्राय है कि भगवान तीर्थंकर द्वारा आगम के माध्यम से बताए गए उपदेशों का हमें निर्विकार रूप से पालन करना चाहिए, क्योंकि इसी में हमारा कल्याण निहित है और यही उपदेश बिना राग-द्वेष के सर्वहित में हैं।
अनंत सागर
श्रावकाचार (सातवां दिन)
शुक्रवार, 7 जनवरी 2022,बांसवाड़ा
Give a Reply