धर्म और धर्म के धारक जीवों की निंदा से दूर रहना सम्यग्दृष्टि का प्रमुख कर्त्तव्य है। अर्थात सम्यक दृष्टि व्यक्ति धर्म के मार्ग पर चल रहे व्यक्ति की आलोचना नहीं करता है। वह कभी किसी को गिराने या नीचे दिखाने का अभिप्राय नहीं रखता। धर्मात्मा जीवों का यदि कोई दोष उसकी दृष्टि में आता भी है तो उन्हें प्रेमपूर्वक एकान्त में समझाकर उस दोष को दूर करने का प्रयत्न करता है। यदि इस प्रकार का प्रयत्न करने पर भी कोई धृष्टतावश अपना दोष नहीं छोड़ता है तो धर्म मार्ग की रक्षा के लिए उसके उस दोष को प्रकट भी करता है। यह संकल्प सम्यग्दर्शन गुण की रक्षा करता है ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन के आठ गुणों में से पांचवे उपगृहन अंग का स्वरूप बताते हुए कहा है कि
स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम् ।
वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगृहनं ॥15 ॥
अर्थात- स्वभाविकरूप से शुद्ध एवं पवित्र रत्नत्रयरूप मार्ग की अज्ञानी तथा असमर्थ मनुष्यों के आश्रय से होने वाली निंदा को जो परिमार्जित करते हैं या दूर करते हैं, उनके उस निन्दा के दूर करने को अर्थात् परिमार्जन को (उपगृहन) दोष छिपाने रूप उपगृहन गुण कहते हैं।
सही अर्थ में देखा जाए तो स्वयं का जब तक कल्याण न हो जाए जब तक किसी ओर के कल्याण की बात नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हर मनुष्य में कोई ना कोई बुराई है और हर मनुष्य में कोई ना कोई अच्छाई है। हमें अच्छाई देखने का काम करना चाहिए। अच्छाई देखकर उसे ग्रहण करने और बुराई देखकर उसे ग्रहण नहीं करने का संकल्प ही सम्यग्दर्शन को मजबूत करता है।
मेरी भावना में कहा भी गया है कि –
गुणी जनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे
बने जहां तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे
होउं नहीं कृत्घन कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे
गुण ग्रहण का ध्यान रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे
उक्त पंक्तियों का अभिप्राय यही है कि विद्वान या धर्म की राह पर चल रहे लोगों के प्रति हमारे मन में श्रद्धाभाव रहे और उनकी सेवा के प्रति हम समर्पित रहें। ऐसे गुणीजनों की निंदा से बचें और उनके गुणों को ग्रहण कर अपने जीवन का कल्याण करें।
अनंत सागर
श्रावकाचार (चौदहवां दिन)
शुक्रवार, 14 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
Give a Reply