छहढाला
तीसरी ढाल
आस्रव त्याग उपदेश,बन्ध,संवर,निर्जरा का लक्षण
ये ही आतम को दु:ख – कारन, तातैं इनको तजिये।
जीव-प्रदेश बँधै विधि सों सो, बन्धन कबहुँ न सजिये॥
शम-दमतैं जो कर्म न आवैं, सो संवर आदरिये।
तप-बलतैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये॥9।।
अर्थ- ये मिथ्यात्व आदि ही आत्मा को दुःख देते हैं, इसलिए इनको छोड़ना चाहिए। जीव के प्रदेशों और कर्म-परमाणुओं का परस्पर एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध हो जाना बन्ध है। ऐसा बंधन कभी भी नहीं करना चाहिए। कषायों के उपशम और पांच इन्द्रियों और मन को वश में करने से जो कर्म नहीं आते हैं, उसे संवर कहते हैं,उसका आदर करना चाहिए। तप के प्रभाव से कर्मों का एकदेश दूर होना निर्जरा कहलाती है, उसको हमेशा प्राप्त करना चाहिए।
विशेष- जीव के लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश हैं। कषायों के उपशम अर्थात न होने देने को शाम और इन्द्रियों एवं मन की स्वच्छन्द प्रवृति को रोकना दम कहलाता है। रत्नत्रय की वृद्धि हेतु इच्छाओं का निरोध करना तप है।
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