आचार्य शांतिसागर महाराज जब जयपुर में चातुर्मास के लिए पहुंचे तो उन्होंने खानियों की नशियां में निवास किया। एक दिन नशियां का दरवाजा किसी ने भूलवश बंद कर दिया और पर्याप्त हवा न मिलने के कारण आचार्य श्री को बेहोश हो गए। चिल्लाना या हो-हल्ला करवा कर दरवाजा खुलवाना उनकी आत्मनिष्ठापूर्ण पद्धति के अनुकूल नहीं था। ऐसी ही स्थिति एक बार समडोली ग्राम में भी हुई थी। दरअसल परिस्थितयां कितनी भी विकट क्यों न हो जाएं, आचार्य शांतिसागर महाराज बिल्कुल नहीं घबराते थे बल्कि वह अपनी आत्मशक्तियों को केंद्रित करके विपत्तियों के स्वागत के लिए तैयार हो जाते थे। एक बार ज्येष्ठ की भीषण गर्मी में सामायिक के बाद महाराज बड़वानी की ओर डामर की सड़क पर 200 मील पैदल चले थे। उस समय वह यही सोचते थे कि कर्मों के संताप की तुलना में यह ताप कुछ भी नहीं है। गर्मी की वजह से उन्हें आंखों की बीमारी हो गई लेकिन वह उस समय भी कर्मों की बीमारी को ही अत्यधिक महत्व देते रहे और आत्मा की निरोगता के लिए जिनवाणी का सेवन करे। वह किसी भी परिस्थिति में आत्मा को कमजोर नहीं बनाना चाहते थे। उनके अनुसार तो मृत्यु उनकी ऐसी प्रिय वस्तु थी, जो आत्मा की शक्ति का संवर्धन कर उसे निरोगता प्रदान करती थी। इसीलिए उत्तर प्रांत में विहार के समय उन्होंने भयंकर सर्दी और गर्मी की वेदना को भी बगैर किसी मानसिक क्लेश के सहन किया था।
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May
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