रावण @ दस : भाग आठ मैं रावण… मेरी दिग्विजय का लक्ष्य था- अपनी वंश परम्परा की राज्य नगरी लंका को पुन: प्राप्त करना। दिग्विजय मात्र शक्ति बढ़ाकर राजा इंद्र
भक्तामर स्तोत्र काव्य – 46 कारागार आदि बन्धन विनाशक आपाद-कण्ठ-मुरु शृंखल-वेष्टि ताङ्गा, गाढं बृहन् निगड -कोटि-निघृष्ट -जङ्घाः । त्वन् नाम –मन्त्र -मनिशं मनुजाः स्मरंतः सद्यः स्वयं विगत -बन्ध-भया भवन्ति
भक्तामर स्तोत्र काव्य – 39 सिंह भय निवारक भिन्नेभ-कुम्भ-गल-दुज्ज्वल-शोणि ताक्त- मुक्ताफल-प्रकर-भूषित-भूमि भागः । बद्ध-क्रमः क्रमगतं हरिणाधि – पोऽपि, नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥39॥ अन्वयार्थ:भिन्नेभ – विदारण किये गये हाथी के
भक्तामर स्तोत्र काव्य – 38 हाथी वशीकरण श्च्योतन्-मदाविल-विलोल-कपोलमूल- मत्त-भ्रमद-भ्रमर-नाद विवृद्ध-कोपम् । ऐरावताभ-मिभ-मुद्धत-मापतन्तम्, दृष्टवा भयं भवति नो भवदा-श्रितानाम् ॥38॥ अन्वयार्थ : श्च्योतन् – झरते हुए । मदाबिल – मद से मलिन
भक्तामर स्तोत्र काव्य – 31 राज्य सम्मान दायक व चर्म रोग नाशक छत्र-त्रयं तव विभाति शशाङ्क-कांत- मुच्चैः स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम् । मुक्ता-फल-प्रकर-जाल-विवृद्ध-शोभम्, प्रख्याप -यत्-त्रिजगतः परमेश्वर – त्वम् ॥31॥ अन्वयार्थ : उच्चै:स्थितम्