धर्म का रथ दो पहियों से चलता है। पहला पहिया श्रावक का जो घर में रहकर धर्म करता है और दूसरा पहिया मुनियों का जो घर का त्याग कर धर्म ध्यान करते हैं। इन दोनों के आचरण-चारित्र में अंतर हैं। मुनि महाव्रती होता है, जो रंच मात्र भी हिंसा नहीं करता है और श्रावक अणुव्रती होता है। उसके आवश्यक कर्तव्यों के पालन करने में हिंसा होती है। यह कह सकते हैं कि त्रस जीवों का घात संकल्प के साथ नहीं करता, पर स्थावर जीव का घात तो होता ही है। धर्म ध्यान के निमित्त से किए कार्य में कोई हिंसा होती है, वह दुःख का कारण नहीं होती, क्योंकि उस हिंसा में क्रोध आदि चार कषाय नहीं है। कषाय आदि के साथ कि हिंसा पाप-दुःख का कारण है। जैसे आप फल खाने के लिए लाते हो तो वह पाप का कारण हो सकता है, लेकिन वही फल भगवान को चढ़ाने को लाए तो पाप का कारण नहीं है।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में चारित्र के भेद बताते हुए कहा है कि …
सकलं विकलं चरणं, तत्सकलं सर्वसङ्गविरतानाम् ।
अनगाराणां विकलं, सागाराणां ससङ्गानाम् ॥ 50 ॥
अर्थात- वह चारित्र सकल/महाव्रत और विकल/अणुव्रतरूप दो प्रकार है उनमें समस्त परिग्रहों से विरक्त अनगार/मुनियों के सकलचारित्र और घर आदि परिग्रह सहित सागारों/गृहस्थों के विकलचारित्र होता है।
आत्म के चारित्र गुण का घात चारित्र मोहनीय कर्म के कारण होता है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ के अनुदय रूप क्षयोपशम से विकल चारित्र होता है, जो सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रावक को होता है, जिनका हिंसा आदि पांच पापों का एक देश त्याग होता है और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ के अनुदय रूप क्षयोपशम से सकल चारित्र होता है, जिनका हिंसा आदि पांच पापों का संपूर्ण त्याग होता है। यह सम्यग्दृष्टि मुनियों को होता है । मिथ्यादृष्टि जीव के जो विकल या सकलचारित्र होता है, उसे करणानुयोग चारित्र रूप से स्वीकृत नहीं करता। ऐसे चारित्र में सवर और निर्जरा नहीं होती ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 56वां दिन)
शुक्रवार, 25 फरवरी 2022, घाटोल
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