मुनि पूज्य सागर की डायरी से
मौन साधना का 35वां दिन। धर्म का कार्य करते हुए भी इंसान को मृत्यु का डर, व्यापार में हानि का डर, गाड़ी के दुर्घटनाग्रस्त होने का डर, रोगी होने का डर, परिवार के टूट जाने का डर, हार जाने का डर और न भी जाने कितने प्रकार का डर बना रहता है। मैं सोचता रहा हूं कि धर्म तो इंसान का डर दूर करता है फिर वह क्यों डर रहा है? क्या वह धर्म ही नहीं कर रहा है, भूल हो रही है या फिर नासमझी में धर्म कर रहा है, यही बात जहन में घूम रही थी।
ध्यान में धीरे- धीरे यह बात तो स्पष्ट होती गई कि धर्म का फल तो डर को दूर करना है, पर डर दूर नहीं हो रहा है तो धर्म का पालन करने में ही कहीं ना कही भूल है। वह भूल क्या है? यह सोचते- सोचते एक तस्वीर स्पष्ट हुई है कि धर्म करने की जो योग्यता होनी चाहिए, वह इंसान के पास है ही नहीं। यही भूल है। धर्म की धार्मिक क्रिया करने वाले इंसान को शराब, मांस का त्यागी, पंच उदम्बार फल का त्यागी वाला होना चाहिए, जल का उपयोग प्रासुक कर करने वाला होना चाहिए। प्रतिदिन भगवान का दर्शन करने वाला होना चाहिए, अपनी कमाई का कम से कम 7% दान करने वाला होना चाहिए, धर्म के ग्रंथों को पढ़ने वाला होना चाहिए और अहंकारी नहीं होना चाहिए। शिक्षित कुल में जन्म होने का अभिमान होना चाहिए। इन योग्यताओं के साथ धर्म की क्रिया करने वाला इंसान डर से दूर रहता है। यदि वह इन सब नियमों का पालन नहीं कर रहा है और वह धर्म कर रहा है तो धर्म करने का फल और डर बना रहेगा।
पर, यह सब योग्यता क्यों चाहिए? फिर एक प्रश्न जहन में आया। उसका उत्तर स्पष्ट धर्मशास्त्र में लिखा हुआ है कि मन, वचन और काय की पवित्रता के लिए यह सब नियम आवश्यक है। इनकी पवित्रता के बिना इंसान के मन, मस्तिष्क में धर्म की बातें रुकने वाली नहीं हैं। कहावत है ना कि, शेरनी का दूध सोने के पात्र में ही टिकता है, वैसे ही धर्म मन आदि की पवित्रता के बिना नहीं रुकता है।
बुधवार, 8 सितम्बर, 2021 भीलूड़ा
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