गृहस्थ के आचरण को मर्यादित करने के 12 प्रकार के व्रतों का वर्णन पहले पढ़ा है, उसमें पहले अणुव्रत के पांच भेदों के स्वरूप को समझते हैं । बिना जाने, समझे उनका पालन सम्भव नहीं है।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अणुव्रत के पांच भेद के नाम बताते हुए कहा है कि …
प्राणातिपात वितथव्याहार-स्तेय-काम-मूर्च्छाभ्यः ।
स्थूलेभ्यः पापेभ्यो, व्युपरमणमणुव्रतं भवति ॥52॥
अर्थात- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन स्थूल पापों से विरत होना अणुव्रत होता है।
इन्द्रियादि प्राणों का वियोग करना प्राणातिपात (हिंसा) है। असत्य वचन बोलना वितथ (झूठ) व्यवहार है। स्वामी की आज्ञा के बिना किसी वस्तु का ग्रहण करना स्तेय(चोरी) है। मैथुन करना काम (कुशील) है और लोभ के आवेश से बाह्य पदार्थों को ग्रहण करना मूच्छा अथवा परिग्रह है। ये पाँच पाप स्थूल और सूक्ष्म की अपेक्षा दो प्रकार के हैं। इनमें स्थूल पापों से विरत होना अणुव्रत कहलाता है। अणुव्रत धारी जीवों के सूक्ष्म पापों का त्याग असम्भव रहता है, इसलिये स्थूल हिंसादि के त्याग को ही अणुव्रत कहते हैं। जैसे अहिंसाणु व्रत का धारी पुरुष त्रस हिंसा से तो निवृत्त होता है, परन्तु स्थावर हिंसा से निवृत्त नहीं होता। सत्याणुव्रत का धारक पुरुष, पापादिक के भय से परपीड़ा कारक स्थूल असत्य वचन से निवृत्त होता है, सूक्ष्म असत्य वचन से नहीं। अचौर्याणुव्रत का धारी पुरुष राजादिक के भय से दूसरे के द्वारा छोड़े हुए स्थूल अदत्त वस्तु के ग्रहण से निवृत्त होता है, सूक्ष्म से नहीं। ब्रह्मचर्याणुव्रत का धारक पुरुष पाप के भय से दूसरे की गृहीत अथवा अगृहीत स्त्री से निवृत्त होता है, स्व स्त्री से नहीं। इसी प्रकार परिग्रह परिमाणात का धारक पुरुष, धन-धान्य तथा खेत आदि परिग्रह का अपनी इच्छानुसार परिमाण करता है इसलिये स्थूल परिग्रह से ही निवृत्त होता है, सूक्ष्म से नहीं। ये प्राणातिपात हिंसा आदि कार्य पाप है, क्योंकि पाप कर्मों के आसव-द्वार हैं, इनके निमित्त से जीव के सदा कर्मों का आव होता रहता है।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 58वां दिन)
रविवार, 27 फरवरी 2022, घाटोल
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