तिर्यंच प्राणी मेढ़क में जिनेन्द्र भगवान पर श्रद्धा रखते हुए उसने भगवान महावीर के दर्शन के भाव बनाए और मुख में कमल की पंखुड़ी दबाते हुए समवशरण में भगवान महावीर के दर्शन के लिए निकल पड़ा और रास्ते में राजा श्रेणिक के हाथी के पैर के नीचे दब कर मर गया। वह कुछ ही क्षण में स्वर्ग का देव बना, वहां से सीधे भगवान महावीर के समवशरण में आकर तीर्थंकर महावीर को नमस्कार किया, तो देखा जब एक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच मात्र दर्शन करने के भाव से देव बन गया तो सम्यग्दृष्टि मनुष्य इन्द्र आदि विभूति से सहित पद को प्राप्त करता ही है ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा कि…
अष्टगुणपुष्टितुष्टा, दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः
।
अमराप्सरसां परिषदि, चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे ॥37॥
अर्थात– सम्यग्दर्शन से सहित भगवान् जिनेन्द्र के
भक्त पुरुष स्वर्ग में देवों और अप्सराओं की सभा में अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, कामरूपित्व इन आठ गुणों की परिपूर्णता से संतुष्ट , प्रसन्न और अन्य देवों की अपेक्षा विशेष शोभा/सुन्दरता से सहित होते हुए बहुत काल तक रमण करते हैं अर्थात् इन्द्र होते हैं।
जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य दिगम्बर दीक्षा को धारण कर तपश्चरण करते हैं, वे उसी पर्याय से मोक्ष प्राप्त करने की अनुकूलता न होने पर स्वर्ग जाते हैं तथा इन्द्र होकर देव-देवियों की सभा में सागरों पर्यन्त क्रीड़ा करते रहते हैं। वे अणिमा आदि आठ गुणों और प्रकृष्ट असाधारण शोभा से सहित होते हैं।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 43वां दिन)
शनिवार, 12 फरवरी 2022, बांसवाड़ा
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