चारों गति में मनुष्य गति श्रेष्ठ है। मनुष्यभव में जन्म लेकर जो संस्कारों के माध्यम से श्रावक बनकर धर्म ध्यान करता है उसे चारो और से खुशी ही खुशी मिलती है। मनुष्य भव में धर्म-ध्यान करना कितना महत्वपूर्ण है इसका वर्णन अमितगतिकृत श्रावकाचार में किया गया है।
इसमें लिखा है कि-
जिस प्रकार समभाव के बिना नीति नहीं रह सकती, विनय के बिना विद्या प्राप्त नहीं हो सकती, निर्लोभी हुए बिना कीर्ति नही मिल सकती और तप के बिना पूजा प्राप्त नहीं हो सकती है। उसी प्रकार मनुष्यता के बिना जीव के हित रूपी धर्म की सिद्धि भी नहीं हो सकती है। जैसे अन्न से हीन शरीर, नयन से हीन मुख, नीति से हीन राज्य, नमक से हीन भोजन और चंद्रमा से हीन रात्रि नही सोहती है, वैसे ही धर्म से हीन जीवन भी नही सोहता है। जैसे धान्य से देश, जल से कमलवन, शौर्य से शस्त्रधारी, फल से वृक्ष, मद से गज और वेगवान गति से अश्व को शोभा प्राप्त होती है वैसे ही धर्म से मनुष्य को शोभा प्राप्त होती है। जो बुद्धिविहीन मनुष्य बहुत कष्ट से प्राप्त हुए मनुष्यभव को पाकर भी धर्म को धारण नही करता है, वह उस गरीब पीड़ित मनुष्य के समान मूर्ख है, जो स्वर्ण राशि को पाकर के भी उसे छोड़ देता है।
अनंत सागर
श्रावक
पैतालीसवां भाग
10 मार्च 2021, बुधवार, भीलूड़ा (राजस्थान)
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