चेहरे पर मुस्कान बनाए रखने के लिए जीवन में सुख, शांति, समृद्धि होना आवश्यक है, लेकिन यह सब सकारात्मक सोच से ही संभव है। साकारात्मक सोच शुभ कर्म का बंध करवाती है। जीवन के हर कार्य में सदैव सकारात्मक सोच, क्रिया और वचन होना चाहिए। शत्रु के प्रति भी कल्याण का भाव हो। हम ऐसे काम करें कि स्वयं और दूसरों को आत्मिक शान्ति मिले। अपने मुखारविंद से संसार के समस्त प्राणियों के लिए आदर, सम्मान सूचक शब्दों का उच्चारण हो। हमारा इस प्रकार का हमारा व्यवहार ही पुण्य का बन्ध करवाता है और पुण्य ही सुख आदि का कारण है। आज हमारे पुण्य कार्य ही कम हो गए है। इसी का परीणाम है कि हम शारीरिक, मानसिक और आर्थिक दुःखों से दुखी हैं। हमारे आप-पास का वातावरण मन, वचन और काय से दूषित हो गया है। इन सब के कारण अशुभ कर्म रूपी पर्वत इतना बड़ा हो गया है। अशुभ कर्म रूपी पर्वत को काटने के लिए पुण्य रूपी छैनी की आवश्यकता है। पुण्य और पाप की क्रिया बताते हुए जैन आचार्य उमास्वामी में तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ के एक सूत्र में कहा है-
शुभरूपुण्यस्या शुभरूपापस्य ।
इसका अर्थ है शुभ योग पुण्य एवं अशुभ योग पाप के आस्रव के कारण है। शुभ क्रिया से विपरीत सब अशुभ क्रिया है।
मन, वचन और काय को ऐसी क्रिया में लगाना चाहिए कि जिससे स्वयं और दूसरों को दुख व कष्ट ना पहुंचे। मुख्य रूप से जिनदेव, जिनगुरु, जिन शास्त्रों की आराधना, पूजन, अहिंसा, चोरी नही करना, ब्रह्मचर्य आदि का पालन करना और जरूरतमंदों की सेवा, अपंगो की सेवा, गौमाता की सेवा, पशु-पक्षियों की सेवा, पेड़-पौधों का संरक्षण आदि काय की शुभ क्रियाएं हैं। ऐसे सत्य, हित-मित वचन बोलना जिन्हें सुनकर कर शत्रु भी प्रसन्न हो जाए और सब के लिए सम्मान जनक शब्दो का उपयोग आदि शुभ वचन हैं।
अर्हन्त भक्ति, तप की रुचि, श्रुत का विनय आदि विचार तथा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ आदि भावों की भावना शुभास्रव को जन्म देती है। यही मन की शुभ क्रिया है। खुश रहने के लिए इन सब क्रियाओं को करने का संकल्प कर जीवन में उतारना प्रारम्भ कर दें।
अनंत सागर
कर्म सिद्धांत
( तेईसवां भाग)
6 अक्टूबर, 2020, मंगलवार, लोहारिया
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
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