किसी को दुख पहुंचाना भी हिंसा -अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर
हिंसा का मतलब मात्र किसी जीव की हत्या कर देना नहीं है। किसी के मन को दुःख पहुंचाना भी हिंसा ही है। अंधे को अंधा कहना भी हिंसा है, तो सोचें कि हिंसा का विस्तार कितना बड़ा होगा। जीव की हत्या का मन में सोचने वाला, वचन से कहने वाला और शरीर से करने वाला। स्वयं करने वाला, करवाने वाला और करने वाले की अनुमोदना करने वाला भी हत्या का दोषी होता है। यह बात अलग है कि मन से करने वाले आदि भेद होने पर हत्या का पाप एक समान भी लग सकता है और कम भी लग सकता है। किसी के बारे में बुरा सोचना, अपशब्द का प्रयोग करना, बिना प्रयोजन कार्य करना भी हिंसा है। चाहे हिंसा हो या नहीं हो हिंसा का दोष ही लगता है । श्रावक त्रस जीवों का त्यागी होता है पर स्थावर जीवों की हिंसा उससे हो जाती है। मुनियों की त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा का त्याग होता है। श्रावक की हिंसा के त्याग को अहिंसाणुव्रत कहते हैं और मुनि के हिंसा के त्याग को अहिंसा महाव्रत कहते हैं ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अहिंसाणुव्रत का स्वरूप बताते हुए कहा है कि …
सङ्कल्पात्कृतकारित, मननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान् ।
हिनस्ति यत्तदा स्थूलधारमणं निपुणाः ॥53॥
अर्थात- जो मन, वचन और काय के कृत कारित और अनुमोदना रूप संकल्प से त्रस जीवों को नहीं मारता है, उसकी उस क्रिया को गणधर आदिदेव स्थूलहिंसा से विरक्त होना अर्थात अहिंसाणुव्रत कहते हैं।
“मैं इस जीव को मारुं” इस अभिप्राय से जो हिंसा होती है, उसे संकल्प कहते हैं। संकल्प मन, वचन और काय योगों से कृत, कारित और अनुमोदना रूप परिणति से होता है। किसी कार्य को स्वतन्त्रता पूर्वक स्वयं करना कृत है, दूसरे से कराना कारित है और करने वाले के लिए अपने मानसिक परिणामों को प्रकट करते हुए अनुमति के वचन कहना अनुमोदना है। यह कृत,कारित और अनुमोदना मन, वचन, काय तीनों योगों से उत्पन्न होती है, इसलिये संकल्प के नौ विकल्प हो जाते हैं। इन सभी विकल्पों से जो त्रस जीवों की हिंसा नहीं करता है, वह अहिंसाणुव्रत है ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 59वां दिन)
सोमवार, 28 फरवरी 2022, घाटोल

