माता-पिता को याद कर भावुक हुए मुनि पूज्य सागर
कालीचरण, मदनगंज-किशनगढ़
अ
पनी 48 दिन की अखंड मौन साधना के बाद मुनि पूज्य सागर ने पत्रिका से सीधी बातचीत भी की। मुनि पूज्य सागर बातचीत में अपने माता-पिता की कृतज्ञता को याद कर भावुक भी हो गए। मुनि पूज्य सागर ने पत्रिका से बातचीत में अपने चिंतन के दिनों, साधना में लिए संकल्प और कई मार्मिक अनुभवों को साझा भी किया। साथ ही युवा पीढ़ी को धर्म और संस्कृति से जुड़ने का संदेश भी दिया।
सवाल : 48 दिन की मौन साधना संकल्प क्यों लिया और यह विचार क्यों और कैसे आया?
जवाब : अगर संस्कार की बात करें तो यह एक जन्म के संस्कार नहीं होते बल्कि कई जन्मों के संस्कार होते हैं। साधना के पथ पर व्यक्ति बढ़ता है और अनुष्ठान पूजन जाप करता है। मेरी साधना का जन्म श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में हुआ। वहां एक साल रहने के दौरान मैंने स्वामी चारूकीर्ति से कहा कि आपने मुझे कुछ सिखाया ही नहीं, मैं यहां रहकर क्या करूंगा। इस पर उन्होंने कहा नीचे चलते है। नीचे भंडार बस्ती मंदिर की परिक्रमा करने के दौरान जो लगभग एक किलोमीटर की है वहां उस समय उड़ती चिड़ियाओं और उनके बच्चों को दिखाते हुए स्वामी चारूकीर्ति ने कहा कि यह अपने आप उड़ना सीखते हैं। चििड़या अपने बच्चों को दाना-पानी देती है लेकिन उड़ना नहीं सिखाती है। इसी तरह तुम्हें रहने की जगह दी, किताबें दी, परिचय करवाया, अब सीखना तुमको है। यह मौन साधना भी पिछले 12 वर्ष के संस्कार का परिणाम है।
सवाल : चातुर्मास में अक्सर संत और मुनि प्रवचन देना ज्यादा पसंद करते हैं फिर चातुर्मास में आपने मौन साधना का ही निर्णय क्यों लिया?
जवाब : प्रवचन कार्यक्रम कराना धर्म प्रभावना का कार्य है। आत्म प्रभावना के लिए स्वयं की साधना करती होती है। अखंड मौन साधना से यह अनुभव आया कि आत्म साधना में आनंद बहुत है, यह अच्छी अनुभूति है। मन में यह संकल्प बना लिया है कि अब प्रतिदिन कम से कम 12 घंटे का मौन रहूंगा।
सवाल : अखंड मौन साधना के दौरान किस बात ने आपको सबसे ज्यादा चिंतित किया?
जवाब : एक तो कभी पूजन सामग्री में कमी आ जाती थी तो चिंता बढ़ जाती थी। चिंतन के दौरान माता-पिता के साथ रहे दिनों का स्मरण आए। साधना पथ पर आने से पहले कॉलेज में पढ़ने के दौरान दूसरे विद्यार्थियों काल में मेरे पिता को कुछ लोगों से सुनना पड़ा। जब यह बात चिंतन में आई तो मैं दु:खी हुआ। फिर कर्म सिद्धांत का चिंतन आया कि जो उनका कर्म उदय था, जो उसके कारण उन्हें सुनना पड़ा और उसका निमित्त मैं बना। सामाजिक व्यवस्थाओं को लेकर भी बातें चिंतन में याद आई। इसका यही निष्कर्ष निकला कि हम हठाग्रह छोड़ दें तो जीवन सुखी हो जाएगा।
सवाल : एक संत के लिए मौन साधना क्यों और कितना जरूरी है?
जवाब : साधु को तो मौन ही रहना चाहिए। मुनि का धर्म तो मौन रहना ही है। सुधार की बात करेंगे तो मौन टूटेगा। शाम 8 से सुबह 6 बजे तक बोलना नहीं है, सामाियक, प्रतिक्रमण और स्वाध्याय, जाप इनका समय भी मिला दें तो कुल 20 घंटे का मौन हो जाता है। अब बचे चार घंटे तो यह प्रवचन का और प्रवचन वही होगा जो स्वाध्याय किया है।
सवाल : इतने दिन तक मौन रहना आमतौर पर संभव नहीं होता है। इसके लिए आपने क्या तैयारियां कीं?
जवाब : अखंड मौन साधना के लिए 12 साल तक तैयारी की। साल भर से अपनी इच्छाओं को यानि लोगों से बातचीत करना कम किया। पिछले 6 महीने से तो इसकी तैयारी ज्यादा बढ़ाते हुए बात करना धीरे-धीरे और कम कर दिया। इस बार स्वतंत्र रूप से चातुर्मास करना था इसलिए श्रवणबेलगोला से निकलते ही तय कर लिया था कि जहां भी चातुर्मास करूंगा, वहां अखंड मौन साधना करूंगा। धीरे-धीरे कम बोलते हुए अपने आपको तैयार किया और मेरी साधना सफल रही।
सवाल : मौन साधना को बहुत बड़ी साधना माना जाता है। इस साधना में आपने क्या संकल्प लिया।
जवाब : मौन साधना से चिंतन की शक्ति बढ़ी और वैचारिक दृढ़ता आई। आत्म चिंतन का विकास होने पर पूरे देश भर में संस्कृति महोत्सव का विचार आया। सोशल मीडिया पर भी इसका प्रचार करने का निश्चय किया। भारतीय संस्कृति की जानकारी नेताओं और अफसरों को देनी चाहिए। अगर उन्हें संस्कृति की समझ हो जाए तो गलत काम नहीं करेंगे। हमारे यहां अच्छे कामों को धर्म का स्वरूप दे दिया गया है, उन्हें धर्म ही माना है। हमारी संस्कृति सभी का सम्मान करना सिखाती है। स्वयं के लिए एक संकल्प अवश्य किया है कि आत्म प्रभावना के लिए सहज भाव से धर्म प्रभावना करना है। जो चीज पसंद नहीं आए, उसे राग द्वेष से दूर रहते हुए उसकी उपेक्षा कर देना ही सही रहेगा।
सवाल : मौन साधना के दौरान आपने अपने आप में बड़ा बदलाव क्या महसूस किया?
जवाब : इससे अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण आया। जो भी साधन अपने पास हों, उसी में संतुष्ट रहने का भाव आया। मौन साधना से चिंतन शक्ति, सकारात्मक सोच की शक्ति बढ़ी। मेरे पास जो ज्ञान, प्रतिभा है उसका अभिमान है लेकिन अहंकार खत्म हो गया।
सवाल : मौन साधना के दौरान ऐसी कौन सी बात हैं जो चिंतन में तो आईं लेकिन उसका डायरी में नहीं लिखा?
जवाब : साधना के दौरान मन में यह चिंतन आया कि जिसने जन्म दिया और पढ़ाया उनके प्रति कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए। साधु होने की मर्यादा के कारण उसको अभिव्यक्त तो नहीं कर सकता लेकिन अंतरंग में हमेशा याद रखूंगा। मेरे माता-पिता जिन्होंने मुझे जन्म दिन, मेरा पालन पोषण किया और साधना पथ पर मुझे आगे बढ़ाने वाली आर्यिका वर्धितमति, जो अब समाधिस्थ हो चुकी हैं, उनके प्रति मन में कृतज्ञता हमेशा मन में याद रखूंगा। साधना के दौरान सामाजिक परिस्थितियों के कारण एक बार मन में बहुत उबाल आ गया और चिंतन-पूजन भी प्रभावित हुआ।
सवाल : यह मौन साधना आप किसे समर्पित करना चाहेंगे?
जवाब : यह मौन साधना मैं अपने शरीर के माध्यम से आत्मा को समर्पित करना चाहूंगा। भगवान को इसलिए नहीं कि भगवान तो अपने भीतर हैं, उसे साधना से प्रकट करना है। इस तपस्या में मेरा कल्याण है। अपने कल्याण के लिए ही यह मौन साधना की है।
सवाल : यदि कोई गृहस्थ मौन साधना करना चाहे तो क्या वह कर सकता है?
जवाब : गृहस्थ में श्रावक मौन व्रत रख सकता है लेकिन उसे व्रत के बाद उस स्थान के सभी मंदिरों में घंटी बांधनी होगी। व्यवहारिकता मेें देखें तो आत्म कल्याण अनुभव से आता है। परमात्मा अनुभव से मिलता है। ज्ञान से जीवन में सफलता मिल सकती है।
सवाल : मौन साधना के दौरान आपको कभी ऐसा लगा कि मौन साधना तोड़ दंू।
जवाब : मन में ऐसा तो नहीं आया लेकिन चिड़चिड़ापन जरूर होता था। किसी को कोई इशारा समझ नहीं पाता था तो जरूर परेशानी आती थी। उस समय मन में आता था कि जंगलों और पहाड़ों में मौन साधना करनी चाहिए। यह अनुभव आया कि जो कमियां रह गईं या जिन चीजों की कमी के कारण परेशानी आई अगली बार उसकी तैयारी पहले से ही कर ली जाए।
सवाल : मौन साधना के बाद समाज और युवा पीढ़ी को क्या संदेश देंगे?
जवाब : समाज को यही संदेश देना चाहूंगा कि वह साधु को अपने हिसाब से चलाने का प्रयास नहीं करे। समाज को सिर्फ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई बात जैन सिद्धांत-आगम के खिलाफ तो नहीं है। कोई साधु दो समय भोजन तो नहीं कर रहा, गाड़ी में बैठकर तो नहीं जा रहा है। धर्म प्रभावना का तरीका सबका अलग-अलग हो सकता है। युवा पीढ़ी को धर्म को समझना चाहिए। माता-पिता, गुरुजन का सम्मान करना, चरण स्पर्श करना, प्रेम से और मीठा बोलना धर्म है। जैन कुल में जन्म लिया है तो पूजा पाठ, अभिषेक, साधु को आहार देना कर्तव्य है। व्यवहारिकता में इसे धर्म कहा जा सकता है।
(20 सितम्बर 2018 को राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित)
Give a Reply