सम्यकदर्शन के आठ अङ्गों में से दूसरे अङ्ग नि:कांक्षित अंग में प्रसिद्ध की कहानी।
अंगदेश की चम्पानगरी में राजा वसुवर्धन रहते थे। उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था। उसी नगर में प्रियदत्त नाम का सेठ था, उसकी पत्नी का नाम अंगवती था, दोनों के एक बेटी थी अनन्तमती। एक बार नन्दीश्वर-अष्टाह्निका पर्व की अष्टमी पर सेठ ने धर्मकीर्ति आचार्य के पादमूल में आठ दिन का ब्रह्मचर्य व्रत लिया। सेठ ने बेटी अनन्तमती को भी ब्रह्मचर्य व्रत दिलवा दिया। अनन्तमती के विवाह का अवसर आया तब उसने कहा कि पिताजी! आपने तो मुझे ब्रह्मचर्य व्रत दिलाया था, इसलिए विवाह से क्या प्रयोजन है। सेठ ने अनन्तमती ने कहा कि, नन्दीश्वर पर्व के आठ दिन के लिए ही ब्रह्मचर्य व्रत दिलवाया था। अनन्तमती ने कहा कि पिताजी भट्टारक महाराज ने तो वैसा नहीं कहा। इस जन्म में मेरा विवाह त्याग है। ऐसा कहकर वह समस्त कलाओं के विज्ञान की शिक्षा लेती हुई रहने लगी।
जब वह पूर्ण यौवनवती हो गई तब चैत्र मास में घर के उद्यान में झूला झूल रही थी। उसी समय विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी स्थित किन्नरपुर में रहने वाला कुण्डलमण्डित नामक विद्याधरों का राजा पत्नी सुकेशी के साथ आकाश में जा रहा था। उसने उस अनन्तमती को देखा और विचार करने लगा कि इसके बिना जीवित रहने से क्या प्रयोजन है ? ऐसा विचार कर वह पत्नी को तो घर छोड़ आया और विलाप करती अनन्तमती को हर ले गया। जब वह आकाश में जा रहा था तब उसने पत्नी सुकेशी को वापस आते देखा। वह भयभीत हो गया और उसने पर्णलघु विद्या देकर अनन्तमती को महाअटवी में छोड़ दिया। वहाँ उसे रोती देख भीलों का राजा भीम अपनी बस्ती में ले गया और कहा कि मैं तुम्हें प्रधान रानी का पद देता हूँ तुम मुझे चाहो” ऐसा कहकर रात्रि के समय उसके न चाहने पर भी उपभोग करने के लिए उद्यत हुआ। व्रत के माहात्म्य से वन देवता ने भीलों के राजा की पिटाई की। “यह कोई देवी है” ऐसा समझकर भीलों का राजा डर गया और बहुत से बंजारों के साथ ठहरे पुष्पक नामक प्रमुख बंजारे को अनन्तमती दे दी। प्रमुख बंजारे ने लोभ दिखाकर विवाह करने की इच्छा व्यक्त की, परन्तु अनन्तमती ने मना कर दिया। इसके बाद बंजारा उसे अयोध्या की कामसेना नाम की वेश्या को सौंप गया। कामसेना ने उसे वेश्या बनाना चाहा, पर वह वेश्या नहीं हुई। वेश्या ने सिंहराज नामक राजा के लिए वह अनन्तमती दिखलाई और वह राजा रात्रि में उसे बलपूर्वक सम्बंध लिए उद्यत हुआ, परन्तु व्रत के माहात्म्य से नगर देवता ने राजा पर उपसर्ग किया, जिससे डरकर उसने अनन्तमती को घर से निकाल दिया।
खेद के कारण अनन्तमती रोती हुई बैठी थी कि कमलश्री नाम की आर्यिका ने “यह श्राविका है” ऐसा मानकर उसे अपने पास रख लिया। तदनन्तर अनन्तमती का शोक भुलाने के लिए प्रियदत्त सेठ बहुत से लोगों के साथ वन्दना भक्ति करता हुआ अयोध्या गया और शाम को साले जिनदत्त सेठ के घर पहुँचा। वहाँ उसने रात्रि में पुत्री के हरण का समाचार कहा। सुबह सेठ प्रियदत्त तो वन्दना भक्ति करने के लिए गए। इधर सेठ की पत्नी ने घर में चौक पूरने के लिए आर्यिका की श्राविका को बुलवा लिया। वह श्राविका काम करके चली गई। वन्दना भक्ति कर जब प्रियदत्त सेठ आए तब चौक देखकर उन्हें अनन्तमती का स्मरण हो आया। उन्होंने कहा कि जिसने यह चौक पूरा है उसे मुझे दिखाओ। इस पर वह श्राविका बुलाई गई। पिता और पुत्री का मेल होने पर जिनदत्त सेठ ने भारी उत्सव किया। अनन्तमती ने कहा कि पिताजी! अब मुझे तप दिला दो, मैंने एक ही भव में संसार की विचित्रता देख ली है। तदनंतर कमलश्री आर्यिका के पास दीक्षा लेकर उसने बहुत काल तप किया। अन्त में संन्यासपूर्वक मरणकर उसकी आत्मा सहस्रार स्वर्ग में देव हुई।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 20 वां दिन)
गुरुवार, 20जनवरी 2022, बांसवाड़ा
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