सम्यकदर्शन के आठ अंगों में से तीसरे अंग निर्विचिकित्सा में प्रसिद्ध व्यक्तित्व की कहानी
एक बार अपनी सभा में सम्यग्दर्शन के गुणों का वर्णन करते हुए सौधर्मेन्द्र ने वत्स देश के रौरकपुर नगर के राजा उदायन के निर्विचिकित्सा गुण की बहुत प्रशंसा की। उनकी परीक्षा लेने के लिये एक वासव नाम का देव आया। उसने विक्रिया से एक ऐसे मुनि का रूप बनाया, जिसका शरीर उदुम्बर कुष्ठ से गलित हो रहा था। उन मुनि ने विधिपूर्वक खड़े होकर राजा उदायन के हाथ से दिया हुआ समस्त आहार और जल माया से ग्रहण किया और बाद में अत्यन्त दुर्गन्धित वमन कर दिया। दुर्गंध के भय से परिवार के सब लोग भाग गये, परंतु राजा उदायन अपनी रानी प्रभावती के साथ मुनि की परिचर्या करता रहा। मुनि ने उन दोनों के ऊपर वमन कर दिया। ‘‘हाय-हाय मेरे द्वारा विरुद्ध आहार दिया गया है‘‘ इस प्रकार अपनी निन्दा करते हुए राजा ने मुनि का प्रक्षालन किया। अन्त में देव अपनी माया को समेटकर असली रूप में प्रकट हुआ और समस्त प्रकरण बताकर तथा राजा की प्रशंसा कर स्वर्ग चला गया। बाद में निर्विचिकित्सा अंग का पालन करने वाले राजा उदायन महाराज वर्धमान स्वामी के पादमूल में तप ग्रहण कर मोक्ष गये और रानी प्रभावती तप के प्रभाव से ब्रह्मस्वर्ग में देव हुई।
कहानी का सार है कि तीसरे अंग के अनुरूप मनुष्य को दीक्षा के मार्ग पर चलकर स्वयं को पवित्र करना चाहिए और जिन्होंने दीक्षा धारण कर ली है उनके शरीर को देखकर ग्लानि का भाव नहीं लाना चाहिए। हमारा कल्याण तभी संभव है, जब हम आंतरिक मलिनताओं से परे होकर सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र के मार्ग पर चलें।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 21 वां दिन)
शुक्रवार, 21 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
Give a Reply