अयोध्यानगरी में भवदत्त नाम का सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम धनदत्ता था और पुत्र का नाम लुब्धदत्त था। एक बार वह लुब्धदत्त व्यापार के निमित्त दूर गया। वहाँ उसने जो धन कमाया था वह सब चोरों ने चुरा लिया। तदनन्तर अत्यन्त निर्धन होकर किसी मार्ग से आ रहा था। वहाँ उसने किसी समय एक गोपाल से पीने के लिये छाछ माँगी। छाछ पी चुकने पर उसका कुछ मक्खन मूछों में लग गया। उसे देख उसने वह मक्खन यह विचार कर निकाल लिया कि इससे व्यापार होगा। इस तरह वह प्रतिदिन मक्खन का संचय करने लगा, जिससे उसका श्मञ्जुनवनीत यह नाम प्रचलित हो गया।
इस प्रकार जब उसके पास एक प्रस्थ प्रमाण घी हो गया, तब वह घी के बर्तन को अपने पैरों के समीप रखकर तथा शीतकाल होने से झोपड़ी के द्वार पर पैरों के समीप अग्नि रखकर बिस्तर पर पड़ गया। वह बिस्तर पर पड़ा पड़ा विचार करता है कि इस घी से बहुत धन कमाकर मैं सेठ हो जाऊँगा, फिर धीरे-धीरे सामन्त, महासामन्त, राजा और अधिराजा का पद प्राप्त कर क्रम से सबका चक्रवर्ती बन जाऊँगा। उस समय में सात खण्ड के महल में शय्यातल पर पड़ा होऊँगा। चरणों के समीप बैठी हुई सुन्दर स्त्री मुट्ठी से मेरे पैर दाबेगी और मैं स्नेहवश उससे कहूँगा कि तुझे पैर दाबना भी नहीं आता। ऐसा कहकर मैं पैर से उसे ताहित करूँगा। ऐसा विचारकर उसने अपने आपको सचमुच ही चक्रवर्ती समझ लिया और पैर से ताड़ितकर घी का बर्तन गिरा दिया। उस घी से द्वार पर रखी हुई अग्नि बहुत जोर से प्रज्वलित हो गई। द्वार जलने लगा, जिससे इच्छाओं के परिमाण से वह निकलने में असमर्थ हो वहीं जलकर मर गया और दुर्गति को प्राप्त हुआ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 78वां दिन)
शनिवार , 19 मार्च 2022, घाटोल
Give a Reply