मोक्ष और संसार का सुख मनुष्य को कुल, जाति, धन, सम्मान आदि के बल पर नहीं मिलता है, बल्कि उसके विचार एवं आचरण से मिलता है। इस काल के भगवान आदिनाथ से लेकर महावीर तक सभी तीर्थंकर के समवसरण में मनुष्य, देव सब जाने का अधिकार रखते हैं और वहां बैठकर कर धर्म उपदेश सुन सकते हैं। यह बात अलग है कि समवशरण में योग्यता के अनुसार सब के बैठने के स्थान और नियम आदि ग्रहण करने की व्यवस्थाएं अलग-अलग होती हैं, लेकिन धर्म को धारण करने और उसे सुनने अधिकार सब को होता है। समवशरण में जा तो सभी सकते हैं, पर वहां बैठकर उपदेश वही सुन सकता है जो प्राणी सम्यग्दृष्टि है। समवसरण का प्रभाव देखो शेर और गाय, सांप और नेवला एक साथ बैठते हैं। सम्यग्दर्शन धर्म जिसके पास होता है, वह सम्यदृष्टि या धर्मात्मा कहलाता है ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन का महत्व बताते हुए कहा है कि …
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम् ॥28॥
अर्थात – सभी तीर्थंकरदेव सम्यग्दर्शन से सहित चाण्डाल के शरीर से उत्पन्न अर्थात् चाण्डाल कुल में पैदा हुए को भी राख के भीतर ढके हुए अंगार के भीतरी प्रकाश के समान पूज्य/सम्माननीय कहते हैं।
सम्यग्दर्शन आत्मा के श्रद्धा गुण की निर्मल पर्याय है। जिसकी आत्मा में सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है, वह अनन्त संसार को शांत कर देता है। चाण्डालादि नीच कुल में उत्पन्न होने पर भी सम्यग्दृष्टि जीव आदर का पात्र है। कितने ही महानुभाव इस श्लोक का अवतरण इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करने में देते हैं कि जाति या कुल कोई चीज नहीं है, क्योंकि समन्तभद्र स्वामी ने सम्यग्दर्शन से सहित चाण्डाल को भी देव कहा है। सार है कि कुल, ऐश्वर्य आदि की सम्पन्नता अहंकार का कारण नहीं होना चाहिए, क्योंकि इनकी प्रतिष्ठा सम्यग्दर्शनादि गुणों से ही होती है।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 34 वां दिन)
गुरुवार, 3 फरवरी 2022, बांसवाड़ा
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