भक्तामर स्तोत्र
काव्य – 29
नेत्र पीडा व बिच्छू विष नाशक
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभाजते तव वपुः कानकाव-दातम् ।
बिम्बं वियद्-विलस-दंशु-लता-वितानं,
तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्त्र-रश्मेः ॥29॥
अन्वयार्थ : मणि मयूख – मणियों की किरण । शिखा विचित्रे – पंक्ति से शोभित । सिन्हासने – सिन्हासन पर । तव – आपका । कनकावदातम् – सुवर्ण के समान स्वच्छ । वपु: – शरीर । तुंगोदयाद्रि – ऊंचे उदयाचल के । शिरसि – शिखर पर । वियद्–विलसद् – आकाश में शोभित । अंशुलता वितानम् – किरण रुप लता मण्डप वाले । सहस्त्ररश्मे: – सूर्य के । बिम्बम् – बिम्ब के । इव – समान । विभ्राजते – अति शोभायमान हो रहा है ।
अर्थ- मणियों की किरण ज्योति से सुशोभित पर,आपका सुवर्ण की तरह उज्ज्वल शरीर,उदयाचल के उच्च शिखर पर आकश में शोभित,किरण रुप लताओं के समूह वाले सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है ।
जाप – ऊँ णमो णमिऊण पास विसहर फुलिंग मंतो विसहर नाम रकार मंतो सर्वसद्धि-मीहे इह समरंताणं मण्णे-जागई कष्पदुमच्चं सर्वसिद्धिः ऊँनमः स्वाहा।
ऋद्धि मंत्र – ऊँ ह्रीं अर्हं घोर तवाणं झ्रौं झ्रौं नम: स्वाहा ।
अर्घ्य – ऊँ ह्रीं मणिमुक्ता खचित सिंहासन प्रातिहार्य क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दीप मंत्र – ऊँ ह्रीं मणिमुक्ता खचित सिंहासन प्रातिहार्य क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभ जिनेन्द्राय दीपं समर्पयामि स्वाहा ।
जाप विधि – नीले कपडॆ ,नीली माला,नीले आसन पर बैठकर उत्तर दिक्षा की और मुख कर जाप करना चाहिए ।
कहानी
कुंदन हो गया कोढ़
एक बार एक नगर एक राजा राज करते थे। वह राजा अत्यंत धार्मिक थे और सम्यक दृष्टि रखते थे लेकिन उनकी पत्नी जयश्री बहुत घमंडी थी। उसे अपने रूप के आगे कोई और न सुहाता था। एक दिन राजा ने एक जैन साधु ज्ञानभूषण को आहार चर्या के लिए बुलाया। मुनि श्री को आहार देने के लिए राजा ने रानी को भी बुलाया लेकिन उन्हें देखते ही जयश्री नाकभौं सिकोडऩे लगे और उन्हें तरह-तरह से कोसने लगी। इसके साथ ही अपने सुंदर शरीर की तुलना मुनि श्री के वीतरागी शरीर से करने लगी। मुनि श्री ने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और राजा से आहारचर्या पूर्ण करने को कहा। राजा काफी शर्मिंदा था लेकिन रानी के आगे उसकी एक न चली। साधु आहारचर्या करके चले गए लेकिन रानी के शरीर से कोढ़ फूट पड़ा। जिस सुंदर शरीर पर उसे गर्व था, उसमें से बदबू आने लगी। रानी समझ गई कि यह उसके अशुभ कर्मों का परिणाम है। वह तुरंत भाग कर मुनि श्री के पास गई। मुनि श्री अपने मन में किसी के लिए गुस्सा नहीं रखते तो उन्होंने तुरंत रानी भक्तामर स्तोत्र के 29वें श्लोक का पाठ मंत्रों के साथ करने को कहा। रानी के ऐसा करने पर उसका शरीर फिर से कुंदन की भांति चमक उठा।
शिक्षा : इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि भक्तामर के 29वें श्लोक का पाठ करने से कुकर्मी भी धर्म के मार्ग पर चल पड़ता है और उसका शरीर कुंदन की भांति चमक उठता है।
चित्र विवरण – एक ओर उदयाचल पर स्वर्णिम किरणों वाला सूर्य शोभित हो रहा है ।दूसरी ओर मणिमंडित सिंहासन पर भगवान का स्वर्णिम शरीर शोभायमान है ।
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