जिनके घर कांच के हो वह कभी दूसरों के घर मे पत्थर नहीं फेंकते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि उनका घर भी कांच का है। किसी ने पत्थर फेंका तो वह टूट जाएगा। कुछ ऐसा ही धर्म में भी है जो मनुष्य ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर के मद में आकर सम्यग्दर्शन से सहित मनुष्य का अपमान या तिरस्कार करता है। वह स्वयं अपना ही तिरस्कार कर रहा है। जिस ज्ञान आदि मद में आकर अहंकार करता है वह तो कर्म के अधीन है । वास्तव में संसार के प्रत्येक मनुष्य की आत्मा ही कषाय आदि कर्मों के कारण कर्ममल से कलंकित हो गई है । जब कोई किसी व्यक्ति का अपमान या तिरस्कार करता है तो वह स्वयं अपनी आत्मा का भी तिरस्कार कर रहा है, क्योंकि दोनों की आत्मा गुणों की अपेक्षा एक है । जिसका तिरस्कार किया जा रहा है, उसका क्या होगा, वह तो अलग विषय है, लेकिन जो तिरस्कार कर रहा है, वह स्वयं तो उसी समय अपने गुणों को नष्ट कर रहा है। ध्यान रखना जो धर्मात्मा का तिस्कार करता है, वह स्वयं अपने धर्म और आत्मा का ही तिरस्कार करता हैं ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आठ मदों में गर्वित होकर क्या नहीं करना चाहिए, यह बताते हुए कहा है कि ….
स्मयेन योऽन्यानत्येति, धर्मस्थान् गर्विताशयः ।
सोऽत्येति धर्ममात्मीयं, न धर्मो धार्मिकर्विना ॥ 26 ॥
अर्थात- उपर्युक्त मद से युक्त चित वाला जो पुरुष रत्नत्रयरूप धर्म में स्थित अन्य जीवों को तिरस्कृत करता है, वह अपने धर्म को तिरस्कृत करता है, क्योंकि धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं होता।
ध्यान देने की बात है कि धर्म आत्मा का गुण है और गुण सदा गुणी के आधार पर रहता है। गुणी से गुण कभी पृथक् नहीं रहता, जब यह सिद्धान्त है तब अपना रत्नत्रय रूप धर्म किसी व्यक्ति के आश्रय ही रह सकता है। उससे पृथक नहीं। अतः जो किसी अन्य धर्मात्मा पुरुष का तिरस्कार करता है, वह अपने धर्म का ही तिरस्कार करता है। सार है कि सम्यग्दृष्टि जीव अपने धर्म के प्रति आस्थावान रहता है, इसलिए वह कभी किसी धर्मात्मा का अनादर नहीं करता ।
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