अपने आप को पांच पापों से बचाने का नाम ही सम्यक्चारित्र है। हिंसा आदि पाप मन, वचन और काय के द्वारा ही होते हैं। इन पर नियंत्रण आचरण-संयम से होना संभव है। आज मनुष्य के आचरण में गिरावट आ गई है। इसके कारण ही वह पाप का संचय कर रहा है। बुरे विचार एवं आचरण से किया गया अहिंसा का कार्य भी हिंसा है। बुरे आचरण से बोला सत्य भी झूठ है।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यक्चारित्र का स्वरूप बताते हुए कहा है कि …
हिंसानृतचौर्येभ्यो, मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च ।
पापप्रणालिकाभ्यो, विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥49॥
अर्थात- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँच कार्य, पाप की प्रणालियों के समान हैं। इनसे निरन्तर पापों का आस्रव होता रहता है। सम्यग्ज्ञानी जीव उपर्युक्त पाँचों कार्यों को पाप की प्रणालिका समझकर उनसे विरक्त रहता है। सम्यग्ज्ञानी जीव की यह विरक्ति ही सम्यक्चारित्र कहलाता है ।
जिस प्रकार से गंदा पानी अच्छे पानी को भी खराब कर देता है, उसी प्रकार बिना आचरण -संयम और विवेक के किया गया कार्य भी पाप का कारण होता है। जैसे आप प्रतिदिन मंदिर जाते हो पर घर, परिवार, समाज में झगड़ा करते हो तो वह धर्म पुण्य का बन्ध नहीं करता। वहीं कोई व्यक्ति मन्दिर नहीं जाता है पर घर, परिवार, समाज मे सब से अच्छा रहता हो वह भी पुण्य नहीं कर सकता, क्योंकि पुण्य के लिए श्रद्धा और ज्ञान के साथ आचरण निर्मल होना चाहिए ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 55वां दिन)
गुरुवार, 24 फरवरी 2022, घाटोल
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